अत्यधिक अनुकूलन क्षमता, भीषण सूखे और रोगों को सहने की ताकत, गहरी जड़ें, तेज़ बढ़वार, कठोर स्वभाव, आक्रामकता, ‘पागलपन’ – गरम और शुष्क क्षेत्रों में जीने के लिए विकसित किसी भी पौधे के लिए ये सब गुण आदर्श माने जा सकते हैं। लेकिन जहाँ यही पौधा बाहरी और आक्रामक हो, वहाँ के पारितंत्र के लिए ये गुण बिल्कुल भी आदर्श नहीं रह जाते। राजस्थान और गुजरात जैसे भारत के कुछ शुष्क प्रांतों के परिदृश्य पिछले कई दशकों में बदल गए हैं। कुछ हिस्से अब पहले से अधिक हरे-भरे और घने दिखते हैं, जबकि पारिस्थितिक दृष्टि से उन्हें ऐसा नहीं होना चाहिए। यह हरियाली एक समस्या को छिपाए बैठी है – एक अत्यन्त विवादास्पद प्रजाति, प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा नामक मध्य–दक्षिण अमेरिका के बाहरी पौधे की समस्या।

शुष्क वन पारितंत्र, जैसा कि राजस्थान का यह झाड़ीदार वन, नामक बाहरी झाड़ी की वजह से पारिस्थितिक रूप से बुरी तरह बदल चुका है। फ़ोटो श्रेय: डब्ल्यू.सी.टी.
राजस्थान के इस झाड़ीदार सवाना क्षेत्र में, जहाँ डब्ल्यू.सी.टी. के पारितंत्र पुनर्स्थापन कार्यक्रम के अंतर्गत बहाली की योजना बनाई गई है, पारितंत्र की क्षति के संकेत साफ़ दिखाई देते हैं – अत्यधिक चराई, पेड़ों की डाली काटना और बाहरी आक्रामक प्रजातियों का फैलाव। बाहरी प्रजातियों के हमले का निशान विशेष रूप से साफ़ दिखता है; कई विदेशी प्रजातियाँ इस नाज़ुक, शुष्क परिदृश्य को प्रभावित कर रही हैं, पर प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा की घनी हरी झाड़ियाँ ग्रीष्म ऋतु में स्वाभाविक रूप से सूखी, विरल और भूरे रंग की वनस्पति के बीच साफ़ उभरकर दिखती हैं।
जैसे हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती, वैसे ही हर हरियाली भी अच्छी नहीं होती। शुष्क भूमि को हराभरा और ‘बचाने’ के गलत और अवैज्ञानिक प्रयास में एक तेज़ी से बढ़ने वाली आक्रामक प्रजाति अब इन्हीं क्षेत्रों को नष्ट कर रही है। प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा खुले प्राकृतिक पारितंत्रों – जैसे झाड़-झंखाड़, सवाना और घासभूमियाँ – को कँटीले वनों में बदल रही है और स्थानीय वनस्पति एवं जीव विविधता को विस्थापित कर इन पर अपना वर्चस्व स्थापित कर रही है।

घने रूप से फैली प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा की झाड़ी, नीमाज, राजस्थान। फ़ोटो श्रेय: विजयंत खत्री।
उत्थान और प्रसार
उदाहरण के लिए गुजरात के बन्नी क्षेत्र को ही लें। यहाँ यह कँटीला घुसपैठिया स्थानीय तौर पर ‘गांडो बावड़’ – यानी पागल पेड़ – के नाम से जाना जाता है। मूल रूप से इसे 1960 और 1970 के दशक में गुजरात वन विभाग द्वारा भूमि की लवणता को कम करने, ईंधन लकड़ी उपलब्ध कराने और हरित आवरण बढ़ाने के उद्देश्य से लाया गया था, पर अब प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा ने इस क्षेत्र पर क़ब्ज़ा जमा लिया है। आज स्थिति यह है कि कभी समृद्ध रहे बन्नी के आधे से अधिक घासस्थलों का रूपांतरण होकर वे प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा से आच्छादित कँटीले वन क्षेत्रों में बदल चुके हैं, जिससे इस क्षेत्र की पारिस्थितिक और सामाजिक–आर्थिक बनावट में लगभग अपरिवर्तनीय बदलाव आ गया है।
राजस्थान के शुष्क क्षेत्रों में एक समय ऐसा भी था जब इस बाहरी आक्रामक पौधे के बीज हवाई जहाजों से हवा में बिखेरे गए और पौधों को सड़कों के किनारे रोपा गया। इसके बाद से राजस्थान ने हर दिशा में प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा के विस्फोटक प्रसार को देखा, जिसने पथरीले और लवणीय भूभागों तक को नहीं छोड़ा। अब यह प्रजाति हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल जैसे कई अन्य भारतीय राज्यों पर भी क़ब्ज़ा जमा चुकी है।
इस स्थिति के लिए औपनिवेशिक वन प्रबंधन नीतियों को भी दोष दिया जा सकता है, जिन्होंने घासभूमि और अन्य खुले प्राकृतिक पारितंत्रों को आधिकारिक रूप से ‘बंजर भूमि’ की श्रेणी में डाल दिया था। दुर्भाग्य से, स्वतंत्र भारत की वन संरक्षण और पर्यावरण नीतियाँ भी खुले पारितंत्रों को बड़े पैमाने पर इसी नज़र से देखती और बरताव करती रहीं, जिससे प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा जैसे आक्रामक पौधों के फैलाव को और बढ़ावा मिला। विडंबना यह है कि ऐसे खुले प्राकृतिक पारितंत्र या तथाकथित ‘बंजर भूमि’ भारत के कुल भूभाग का लगभग दस प्रतिशत हिस्सा हैं, फिर भी संरक्षण की दृष्टि से इन्हें बहुत कम महत्व दिया जाता है, जबकि इस अनुमान में शोलाओं जैसे नीलगिरि के विशिष्ट उच्च ऊँचाई वाले खुले पारितंत्र और विस्तृत ट्रांस-हिमालयी क्षेत्रों को शामिल भी नहीं किया गया है, जो हिम तेंदुए और हिमालयी भूरे भालू जैसी प्रतीकात्मक प्रजातियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण आवास हैं।
प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा , झाड़-झंखाड़, सवाना और घासभूमि जैसे खुले प्राकृतिक पारितंत्रों को कँटीले वन क्षेत्रों में बदल रही है और स्थानीय जैव विविधता को हटाकर इन पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर रही है।
पारिस्थितिक खलनायक या मूल्यवान संसाधन?
प्राकृतिक विकास ने प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा को प्रभावशाली पारिस्थितिक गुणों से संपन्न किया है, जिससे यह अत्यंत कठोर होकर गरम, पथरीले और लवणीय आवासों जैसी सबसे आवासहीन परिस्थितियों में भी पनप सकता है। यह पौधा अपनी पूरी जड़ से ऊपर का भाग काटे जाने पर भी जीवित रह सकता है। इसकी गहरी जड़ें मिट्टी और चट्टानों के दरारों में मजबूती से जुड़ी होती हैं, जो इसे पुनः उगने और क्षेत्र पर पुनः कब्जा करने में सक्षम बनाती हैं। विदेशी शुष्क परिदृश्यों में यह तेज़ी से बढ़ने वाली, सूखा सहने वाली झाड़ी स्थानीय पौधों से प्रतिस्पर्धा कर पारिस्थितिक संतुलन को कई स्तरों पर बाधित कर देती है।
डब्ल्यू.सी.टी. द्वारा पिछले एक वर्ष में राजस्थान के हमारे दो पुनर्स्थापन स्थलों में से एक, आरएएएस-छत्रसागर पर किए गए पारिस्थितिक सर्वेक्षणों ने प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा के आक्रमण के प्रभावों को गहराई से समझने में सहायता प्रदान की है। प्रारंभिक निष्कर्ष दर्शाते हैं कि प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा शुष्क परिदृश्य के विशाल क्षेत्रों पर हावी हो गई है, जिससे वृक्ष एवं झाड़ियों की विविधता कम हुई है और पौधों की संरचना में परिवर्तन आया है। इसने मिट्टी की रासायनिक संरचना को काफी बदल दिया है और कीटों तथा पक्षियों की विविधता में कमी ला दी है। स्वदेशी एकेशिया पौधों से आच्छादित वन क्षेत्र अधिक विविध कीट एवं पक्षी समुदायों को समर्थन देते हैं, जबकि प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा से प्रभावित वन क्षेत्रों में प्रजातियों का एकसमान या समरूप समुदाय पाया जाता है। इससे पता चलता है कि आक्रामक प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा प्रभावित क्षेत्रों की तुलना में स्वदेशी आवासों में जैव विविधता अधिक मजबूत है।
प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा के आक्रमण से मिट्टी के सूक्ष्मजीवों और पौधों से लेकर अकशेरुकी, चूहों और मांसाहारी प्राणियों तक सभी पोषी स्तरों पर श्रृंखला प्रतिक्रिया शुरू हो जाती है, जो शुष्क भूमि पारितंत्रों के पारिस्थितिक संतुलन को बाधित करती है। ये क्रमिक प्रभाव प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा आक्रमणों के प्रबंधन की तात्कालिक आवश्यकता पर बल देते हैं, न केवल जैव विविधता संरक्षण के लिए, बल्कि शुष्क भूमि आवासों की कार्यात्मक अखंडता बनाए रखने के लिए भी।
प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा से घिरे भूभागों को बहाल करना बिल्कुल भी आसान नहीं है। भारत के शुष्क क्षेत्रों में इसके योजनाबद्ध रोपण और फिर तेज़ प्रसार के बाद से असंख्य समुदाय किसी न किसी रूप में इस पर निर्भर हो चुके हैं। इसके नकारात्मक पारिस्थितिक प्रभावों के बावजूद, देश के कई हिस्सों में यह आज आजीविका और ईंधन लकड़ी का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत बन गया है। गुजरात और राजस्थान में स्थानीय आजीविकाओं में स्पष्ट बदलाव दिखाई देता है; लोग अब कोयला (चारकोल) बनाने के लिए बड़े पैमाने पर प्रोसोपिस जुलिफोरा पर निर्भर हैं, और इसे निर्माण सामग्री, बाड़बंदी, औज़ार तथा अन्य दैनिक आवश्यकताओं के लिए भी काटते हैं। ऐसे में साझा चारागाहों और सामुदायिक भूमि से प्रोसोपिस जुलिफोरा को हटाकर शुष्क पारितंत्रों को बहाल करना सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से अत्यंत जटिल हो जाता है, क्योंकि यह सीधे-सीधे स्थानीय आजीविका, ईंधन सुरक्षा और ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़ चुका है।
गुजरात और राजस्थान में अब लोग चारकोल उत्पादन के लिए प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा पर निर्भर हैं, और निर्माण सामग्री, बाड़बंदी, औजार तथा अन्य दैनिक आवश्यकताओं के लिए भी इसे काटते हैं।
चित्रण: पूर्वा वरियर एवं अक्षया ज़कारिया/डब्ल्यू.सी.टी.
प्रतिरोध
आरएएएस–छत्रसागर, जो निमाज, राजस्थान में अरावली पर्वतीय परिदृश्य के भीतर स्थित प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा से ग्रस्त निजी भूमि है, पिछले एक वर्ष में वन्यजीव संरक्षण न्यास के पारितंत्र विशेषज्ञों के लिए एक प्रकार की प्रयोगशाला बन गई है, जहाँ क्षेत्र के पुनर्जीवन के लक्ष्य के साथ पुनर्स्थापन की विभिन्न रणनीतियाँ आज़माई और परखी जा रही हैं। यहाँ किए गए अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा ने मिट्टी की संरचना को बदल दिया है, स्वदेशी वनस्पतियों को प्रतिस्पर्धा में पीछे धकेल दिया है, और वन्यजीवों के आवासों को गंभीर रूप से प्रभावित किया है।
लेकिन हम प्रतिरोध कर रहे हैं – चिन्हित क्षेत्रों से इसे हटाकर स्वदेशी पारितंत्रों को पुनर्स्थापित करने का प्रयास। इसका अर्थ है मिट्टी, वनस्पति और वन्यजीव गतिकता को समझना – हटाने के बाद परिवर्तनों की निगरानी करना और भविष्य के पुनर्स्थापन को बेहतर बनाने के तरीकों को सीखना। इन पारितंत्र पुनर्स्थापन प्रयासों के माध्यम से डब्ल्यू.सी.टी., अरावली परिदृश्य के चारों ओर स्वदेशी वनस्पति की पुनर्बहाली में सहायता करने और लचीले सवाना पारितंत्रों का पुनर्निर्माण करने का लक्ष्य रखता है, जो अच्छी तरह से प्रलेखित, वैज्ञानिक और समुदाय-केंद्रित पुनर्स्थापन कार्यों द्वारा संभव होगा।
पारिस्थितिक पुनर्स्थापन एक दीर्घकालिक प्रयास है जिसमें असंख्य चुनौतियाँ आती हैं। यह परीक्षण और त्रुटि का खेल है, जिसमें असफलताएँ भी शामिल हैं, जैसा कि हमने कार्यक्रम आरंभ होने के अल्प समय में ही देखा है। पारिस्थितिक पुनर्स्थापन कार्यों के दौरान हम अक्सर कठिन राह पर पाते हैं – प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा जैसे आक्रामक आक्रमणकारी से लड़ते हुए, अनिश्चित वर्षा, खराब बीज अंकुरण या असफल रोपण ऋतु का सामना करते हुए। कभी-कभी महीनों की मेहनत एक अप्रत्याशित बाढ़ में बह जाती है, या कठोर ग्रीष्म में श्रमपूर्वक पाले गए पौधे मुरझा जाते हैं। कई बार पुनर्स्थापन का अर्थ परिभाषित करना या सही संदर्भ पारितंत्र की पहचान करना भी चुनौती बन जाता है, विशेषकर उन परिदृश्यों में जहाँ सदियों से मानवीय हस्तक्षेप ने आकार दिया और पुनः आकार दिया है। आज जो हम ‘अप्रदूषित’ कहते हैं, वह स्वयं ऐतिहासिक हस्तक्षेपों की विरासत है – पूर्व संरक्षण, बहिष्कार या सांस्कृतिक प्रथाओं के परिणाम जो कुछ पारितंत्रों को आकार देने में सक्षम हुए। ऐसे संदर्भों में पुनर्स्थापन की सरल राह शायद ही कभी मिलती है।
इसके अतिरिक्त, विभिन्न पौधों का व्यवहार और शारीरिक संरचना नर्सरी में उन्हें उगाने को जटिल बना देती है। शुष्क भूमि के स्वदेशी पौधे जैसे रोहिड़ा और खेजड़ी, बेहद धीमी गति से बढ़ते हैं। अन्य जैसे केर और खींप नर्सरी में फलते-फूलते ही नहीं। कई स्वदेशी घासें तो नर्सरी में उगाना और भी कठिन होता है।
मगर जो कार्य मूल्यवान होते हैं वे कभी सरल नहीं होते। अंततः पुनर्स्थापन ‘करते हुए सीखना’ और ‘सीखते हुए करना’ की प्रक्रिया बन जाता है। फिर भी, छोटी-छोटी विजयों में ही हमारी आशा जड़ें जमाती है – जैसे जल स्रोतों के किनारों से घनी प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा को साफ़ करना और ज़मीन पर उतरने वाले पक्षियों की वापसी देखना, या शीर्ष शिकारी प्राणियों की झलक पाना जो पारितंत्र की सतत क्षमता का संकेत देती है। ये पल हमारी दृढ़ता को पुनर्जनन देते हैं। ये पुनर्बहाली की झलकें, चाहे कितनी ही सूक्ष्म हों, इन नाज़ुक परिदृश्यों में संतुलन बहाल करने के प्रति हमारी प्रतिबद्धता को पुनः पुष्ट करती हैं।
पुनर्स्थापन का अर्थ परिभाषित करना या सही संदर्भ पारितंत्र की पहचान करना भी चुनौती बन जाता है, विशेषकर उन परिदृश्यों में जहाँ सदियों से मानवीय हस्तक्षेप ने आकार दिया और पुनः आकार दिया है।

डब्ल्यू.सी.टी. के पारिस्थितिक पुनर्स्थापन प्रयासों के अंतर्गत प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा की घनी झाड़ियों को हाथ से साफ़ किया जा रहा है ताकि स्वदेशी पौध प्रजातियों के लिए स्थान बनाया जा सके।

प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा हटाने के बाद पुनर्स्थापित स्थल खुला परिदृश्य और लचीली स्वदेशी वृक्ष प्रजातियों को प्रकट करता है।
यह लेख मूल रूप से अक्टूबर 2025 अंक में सैंगक्चूएरी एशिया पत्रिका में प्रकाशित हुआ था।
लेखकों के बारे में:
डॉ. चेतन मिश्र एक पारितंत्रविद् हैं, जिनका शोध शुष्क क्षेत्रों के स्वदेशी वन्यजीव समुदायों और पारिस्थितिक संरचना को नई प्रजातियों के आकार देने पर केंद्रित है। वर्तमान में वे राजस्थान में डब्ल्यू.सी.टी. के साथ पारितंत्र पुनर्स्थापन पर कार्यरत हैं।
पूर्वा वरियर संरक्षण एवं विज्ञान लेखिका-संपादिका हैं तथा वन्यजीव संरक्षण न्यास में संचार विभाग का नेतृत्व करती हैं और डब्ल्यूसीटी-बीईईएस अनुदान कार्यक्रम की प्रमुख हैं।
अस्वीकारण: लेखक, वाइल्डलाइफ कंज़र्वेशन ट्रस्ट से जुड़े हुये हैं। इस लेख में प्रस्तुत किए गए मत और विचार उनके अपने हैं, और ऐसा अनिवार्य नहीं कि उनके मत और विचार, वाइल्डलाइफ कंज़र्वेशन ट्रस्ट के मत और विचारों को दर्शाते हों।
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