दसियों हजार वर्ग किलोमिटर में फैले जंगल मध्य भारत के जंगल पूरे देश ही नहीं, बल्कि विश्व के सबसे अच्छे बाघ पर्यवासों में शुमार होते हैं। 2022 की बाघों की गणना के अनुसार मध्य भारत के जंगल लगभग 1439 बाघों का बसेरा हैं। मध्य भारत के वनों में बाघों की प्रचुरता का एक कारण है यहाँ के अलग अलग व्याघ्र आरक्षों (tiger reserves) को आपस में जोड़ने वाले ढेरों वन गलियारे (forest corridors)। ये वन गलियारे बाघों के लिए ना सिर्फ आवाजाही का रास्ता बनते हैं बल्कि कई ऐसे गलियारे, ख़ासकर जो काफ़ी बड़े छेत्रफल में फैले हों (जैसे कान्हा-पेंच गलियारा), ख़ुद ही में भरे-पूरे बाघ पर्यावास होते हैं जहां कई बाघ स्थायी रूप से वास भी करते हैं और प्रजनन भी।
मध्य भारत के अधिकतर बाघ परियावासों और वन गलियारों के अंदर और इर्द-गिर्द कई गाँव हैं, और हज़ारों लोगों का जीवन यावन इनपर निर्भर है। (चित्रण साभार: मैथिली मधुसूदनन)
महाराष्ट्र राज्य के उत्तरी और पूर्वी जंगल मध्य भारत बाघ परिदृश्य (landscape) का एक अभिन्न अंग हैं। जहां ताडोबा अंधारी, पेंच, मेलघाट, बोर, नवेगाँव-नागज़ीरा, तिपेश्वर, उमरेड-कारहन्डला, इत्यादि संरक्षित छेत्र (Protected Areas) राज्य में बाघों के गढ़ के तौर पे देखे जा सकते हैं, वहीं इन संरक्षित छेत्रों के आसपास के जंगलों (और इनको दूसरे संरक्षित छेत्रों से जोड़ने वाले वन गलियारों) में भी बाघ काफ़ी तादाद में पाए जाते हैं। लेकिन इसके साथ-साथ इन सभी वनों और गलियारों के अंदर और इर्द-गिर्द कई गाँव हैं, और हज़ारों लोगों का जीवन यावन इनपर निर्भर है। ऐसे में वन समुदायों के साथ समन्वय और उनकी ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए वन्यजीवों और वनों की सुरक्षा, वन गलियारों का बचाव, आदि क़दम इस पूरे छेत्र में बाघों के भविष्य के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। और इसी जटिल समस्या के समाधान में लगी है WCT की विभिन्न टीमें।
कान्हा-पेंच बाघ गलियारे में स्थित एक गाँव में जागरूकता हेतु WCT द्वारा नियोजित एक नुक्कड़ नाटक कार्यक्रम। (चित्रण साभार: WCT)
डीएसपी समूह द्वारा समर्थित हमारी “बाघ, वन और समुदाय” (Tiger, Forests and Communities) परियोजना के तहत हम चंद्रपुर वन सर्कल (जिसके अंतर्गत ब्रम्हपुरी, चंद्रपुर और मध्य चंदा के वन प्रभाग शामिल हैं), और साथ ही महाराष्ट्र में ताडोबा-कवल गलियारे (कॉरिडोर) और मध्य प्रदेश में कान्हा-पेंच गलियारे, में कार्यरत हैं। इस परियोजना का लक्ष्य है बाघों की उपस्थिति के आधार पर इन क्षेत्रों में पड़नेवाले महत्वपूर्ण गांवों की पहचान करना जिसके पश्चात इन प्रमुख गांवों में जंगल पर निर्भरता को कम करने के लिए वन-संबंधी व्यवहार चालकों (forest-related behaviours) पर शोध कर नीति सुझाव तैयार करना। इस बहुआयामी कार्य के लिए अलग-अलग विशेषज्ञ (जैसे बाघ-वैज्ञानिक, सामाजिक वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, चिकित्सा विशेषज्ञ, अर्थशास्त्री, इत्यादि) मिलकर काम करते हैं।
संरक्षित छेत्र के परे चंद्रपूर के जंगलों में चहलक़दमी करते एक बाघ की कैमरा-ट्रैप तरस्वीर। (चित्रण साभार: WCT)
बीते कुछ समय में हमें इस दिशा में कई उत्साहवर्धक सफलताऐं मिली हैं और हमें उम्मीद है कि आने वाले समय में हमारे द्वारा किए गए शोध वनों और वन्यजीवों की सुरक्षा एवं समुदाय की उन्नति के लिए बनाई जाने वाली नीतियों में अत्यंत हितकारी साबित होंगे।
लेखक के बारे में: रज़ा काज़मी एक वन्यजीव संरक्षक, वन्यजीव इतिहासकार, कहानीकार और शोधकर्ता हैं। इनके लेख कई अख़बारों,ऑनलाइन मीडिया प्रकाशनों, मैगज़ीनों, और जर्नलस में प्रकाशित होते हैं। इनको 2021 में न्यू इंडिया फाउंडेशन फेलोशिप से नवाज़ा गया जिसके अंतर्गत ये अपनी किताब “टू हूम डज़ दी फॉरेस्ट बिलॉंग: दी फेट ऑफ ग्रीन इन दी लैन्ड ऑफ रेड” लिख रहे हैं। WCT में रज़ा एक संरक्षण संचारक (Conservation Communicator) के रूप में कार्यरत हैं, और हिन्दी और अंग्रेज़ी में लिखते हैं।
अस्वीकारण: लेखक, वाइल्डलाइफ कंज़र्वेशन ट्रस्ट से जुड़े हुये हैं। इस लेख में प्रस्तुत किए गए मत और विचार उनके अपने हैं, और ऐसा अनिवार्य नहीं कि उनके मत और विचार, वाइल्डलाइफ कंज़र्वेशन ट्रस्ट के मत और विचारों को दर्शाते हों।
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