हम सभी जानते हैं कि भारत के वन्यजीवों पर सदैव मंडराते अनेक ख़तरों में से एक सबसे बड़ा ख़तरा है उनका अवैध शिकार। यदि हम ज़मीन पर रहने वाले स्तनपाई वन्यप्राणियों की बात करें तो उनके अवैध शिकार को लेकर अमूमन यह आम अवधारणा होती है कि पेशेवर शिकारी चोरी–छुपे जंगलों में घुस कर इन जानवरों को गोली मारकर इनका शिकार करते हैं। इस अवधारणा का कारण यह है कि हमारे समाज में हमेशा जानवरों के शिकार को बंदूक़ से जोड़ कर देखा गया है, चाहे वो अंग्रेज़ी शासन काल में अंग्रेज़ों और राजा–महाराजाओं द्वारा शिकार हो या फिर फिल्मों और किताबों में शिकार का चित्रण हो। लेकिन, सच तो यह है स्थलीय वन्यजीवों के शिकार में बंदूक़ से किए गए अवैध शिकार का हिस्सा एक दूसरी शिकार की पद्धति के सामने बहुत छोटा है। विडंबना यह है कि हालांकि इस शिकार की पद्धति के बारे में आम चर्चा में बहुत कम बात होती है, लेकिन ये वन्यजीवों के नाश के सबसे घातक और व्यापक कारणों में से है। यह शिकार पद्धति है फंदा लगा कर शिकार करना!
तार के फंदे में फंसा एक तेंदुआ। हालांकि अधिकतर तार के फंदों को शाकाहारी जीवों के शिकार के लिए लगाया जाता है, लेकिन ये फंदे निरपेक्ष रूप से जंगल के हर उस जानवर का फांस लेते हैं जो बदक़िस्मती से फंदे की चपेट में आ जाए (चित्रण साभार: Gaius Wilson_CC BY-SA 3.0)
फंदे से शिकार इतना व्यापक इसलिए है क्योंकि यह सस्ता है, और साथ ही इसके लिए ज़रूरी औज़ार आसानी से मिल जाते हैं। इसके अतिरिक्त फंदे के इस्तेमाल से जंगल में कोई आवाज़ भी नहीं होती जैसा की बंदूक़ दागने पर होती है। और तो और शिकारी को ख़ुद जंगल में जानवर की तलाश में कैंप करने की भी ज़रूरत नहीं – वह फंदा लगाकर घर वापस आ जाता है और अपनी सुविधा (और सुरक्षा) के अनुसार फंसे जानवर को लाने वापस जाता है। एक ही फंदा महीनों या सालों इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके अलावा एक और फायदा यह है कि ऐसे फंदों का पता लगाना भी बहुत मुश्किल होता है क्योंकि ये इस प्रकार लगाए जाते हैं कि अव्वल तो उन जगहों पर वन विभाग का गशती दल जाए ही ना, और यदि कोई चला भी जाए तो फंदा आसानी से न दिखे।
एक नर चीतल हिरण जिसके सींघों में फंदा फंस गया है। (चित्रण साभार: अनीश अंधेरीया)
शिकारियों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले फंदे कई तरीक़े के होते हैं। बाघों और तेंदुए के पेशेवर शिकारी ‘खड़का’ (लोहे के दांत वाले ट्रैप जो मिट्टी में दबे होते हैं) इस्तेमाल करते हैं और यह तकनीक कभी कभी बाघ और तेंदुए शिकार की घटना की रिपोर्टिंग के दौरान समाचारों में आती है। पर शायद इससे भी घातक, और सबसे व्यापक, तरीक़ा है तार के फंदे का इस्तेमाल। एक सस्ता सा साइकिल का ब्रेक वायर या स्टील का लंबा तार (जो अक्सर टेलीफोन के तारों से काटा जाता है) इस काम के लिए काफ़ी होता है। इसे शिकारी, जो कि आमतौर पर आसपास के गावों के रहवासी होते है, जंगल में फंदा बना कर लगा देते हैं। फंदे का आकार और बनावट शिकारी के निशाने पर जो प्रजाति होती है उसपर निर्भर करता है। आपको जानकर शायद अचंभा हो पर ये फंदे कई सौ मीटर तक जंगल में बिछे एक अदृश्य जाल की तरह होते है। इसी तरह चिड़ियों के शिकार के लिए अलग क़िस्म के फंदे इस्तेमाल होते हैं।
तेलंगाना वन विभाग द्वारा भारी मात्रा में बरामद शिकारी फंदे और अन्य शिकार के औज़ार। (चित्रण साभार: तेलंगाना वन विभाग)
हालांकि इस शिकार पद्धति में निशाने पर अलग अलग क़िस्म के हिरण, जंगली सूअर, और दूसरे छोटे स्तनपाई जीव होते है जो खाए जा सकें, लेकिन सच तो यह है कि ये फंदे निरपेक्ष रूप से जंगल के हर उस जानवर का काल बन जाते है जो बदक़िस्मती से उधर से गुज़रे – फिर चाहे वो जंगली खरगोश हो या हिरण, गौर (बाइसन) हो या सूअर, भालू हो या लकड़बग्घा, सियार हो या भेड़िया, जंगली बिल्ली हो या बाघ। फंदा निष्पक्ष रूप से सभी को या तो एक दर्दनाक मौत के घाट उतार देता है या यदि जानवर फंदा तोड़ लेते हैं तो इस प्रक्रिया में फंदा उनको इतनी बुरी तरह घायल कर देता है कि अगर वह किसी तरह शिकारी के हाथ से बच भी जाएँ तो शरीर में लगी चोटें या शरीर के किसी हिस्से में फंसे फंदे के टुकड़े उसे कुछ दिन में मार देते हैं। कई बार देखा गया है कि बाघ या तेंदुए जैसे बड़े विडाल हिरणों के लगाए फंदे में फँसते हैं और उसे तोड़ तो लेते हैं पर वो फंदे उनके गले या पेट में फंस जाते हैं। और फिर धीरे धीरे एक आरी की तरह ये फंदे उनके मांस को काटते हुए शरीर में धँसते जाते हैं और कई दिनों तक इस पीड़ा से जूझने के बाद घावों में फैले संक्रमण से इनके जीवन का एक क्रूर अंत होता है।
तार के फंदे में फंसी एक मादा सांभर हिरण। यदि जानवर फंदा तोड़ भी लेते हैं तो भी यह फंदे उनके गले या पेट में फंस जाते हैं, और फिर धीरे धीरे उनके मांस को काटते हुए शरीर में धँसते जाते हैं। अंततः घावों में फैले संक्रमण से जानवर की दर्दनाक मौत हो जाती है। (चित्रण साभार: वाइल्ड्लाइफ कंज़र्वेशन ट्रस्ट)
फंदे के कारण गले पर हुए गहरे घाव से जूझता एक लकड़बग्घा। (चित्रण साभार: वाइल्ड्लाइफ कंज़र्वेशन ट्रस्ट)
इन फंदों के अतिरिक्त, एक और तरीक़ा है विद्युत लैस तारों से शिकार। अब इसे आप फंदा शिकार का ही एक उप-प्रकार माने या एक जुदा तकनीक, नतीजा एक ही होता है – मौत। इस तकनीक में जंगल में जंगली जानवरों के भ्रमण के आम रास्तों (एनिमल ट्रैल) पर पतले-पतले तार सफ़ाई से लगा दिए जाते हैं और इन तारों को किसी बिजली के खंबे तक खींच कर करंट के तार से जोड़ दिया जाता है। आपको यह जान कर शायद आश्चर्य होगा कि शिकारी इन तारों को कुछ मिटर से लेकर 3 किलोमीटर तक की दूरी पर स्थित बिजली खंबों से भी जोड़ देते हैं। जो भी ऐसे तारों की चपेट में आता है उसकी मौत पल भर में हो जाती है, चाहे वो हाथी जैसे विशालकाय जीव ही क्यूँ न हो। बीते सालों में सैंकड़ों बाघ, तेंदुए, हिरण, गौर, भालू, हाथी, और सभी छोटे बड़े जीव इनकी चपेट में आकार क्षण भर में मारे गए हैं। लेकिन काल का घंटा सिर्फ जंगली जानवरों तक सीमित नहीं है, इन करंट युक्त शिकारी तारों में कई बार आसपास के गाँव के लोग और उनके मवेशी भी मारे जाते हैं। कारण यह की जंगल में जानवरों के भ्रमण के आम रास्तों पर कई बार इंसान या उनके मवेशी भी चलते हैं। और जब वे इस विद्युतीय फंदे से अनभिज्ञ उस रास्ते से गुज़र रहे होते हैं तो ये विद्युतीय शिकारी तार इन्हे भी उसी क्रूरता से पल भर में मौत की नींद सुला देते हैं।
विद्युत लैस तारों से शिकार की पद्धति का चित्रण। (चित्रण साभार: तेलंगाना वन विभाग)
फंदों और विद्युतीय शिकारी तारों से भारी मात्रा में होने वाले इस शिकार से भारत भर में सैंकड़ों जानवर कहीं न कहीं हर रोज़ मारे जाते हैं। कुछ राज्यों, जैसे कि छत्तीसगढ़, झारखंड, ओड़िशा, उत्तरी तेलंगाना, उत्तरी आंध्र प्रदेश, दक्षिणी बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, गढ़चिरोली (महाराष्ट्र), वगेरह में तो स्थिति इतनी बदतर हो गई है कि इस तरह के शिकार के परिणामस्वरूप भारत के इन भूभागों में फैले हज़ारों वर्ग किलोमीटर के सघन जंगलों में लगभग सभी बड़े और मध्यम आकार के जानवर या तो विलुप्त हो गए हैं या विलुप्ति की कगार पर हैं। वैज्ञानिक ऐसी परिस्थिति को “एंप्टी फॉरेस्ट सिंड्रोम” (Empty Forest Syndrome) कहते हैं।
लेकिन हल क्या है? सच तो यह है की कोई एक हल नहीं है क्यूंकी समस्या जटिल है और इसके कई आयाम हैं। पर ये भी सच है की इस शिकार का उन्मूलन मुश्किल तो है लेकिन नामुमकिन भी नहीं। संक्षेप में बात करें तो इसमें पैदल गशती, बेहतर सूचना तंत्र, पकड़े गए शिकारियों को कोर्ट से सज़ा, गावों में जागरूकता अभियान, और जंगल पर निर्भर समुदायों से बेहतर ताल-मेल शामिल है। साथ ही कोशिश ये हो कि जंगल की बारीक समझ रखने वाले ऐसे शिकारियों का जानवरों के संरक्षण में पुनर्वासन किया जाए।
तेलंगाना वन विभाग द्वारा जंगलों में गश्ती के दौरान ज़ब्त किए गए फंदे। ऐसे फंदों का पता लगाना भी बहुत मुश्किल होता है क्योंकि ये इस प्रकार लगाए जाते हैं कि अव्वल तो उन जगहों पर वन विभाग का गशती दल जाए ही ना, और यदि कोई चला भी जाए तो फंदा आसानी से न दिखे। (चित्रण साभार: तेलंगाना वन विभाग)
मुझे पूरा एहसास है की यह सभी सुझाव लिखना आसान है जबकि इनका परिपालन और निर्वाहन उतना ही मुश्किल। पर जैसा की मैंने कहा, मुश्किल ज़रूर है पर नामुमकिन नहीं। और जिस रोज़ हम इस अदृश्य परंतु भीषण समस्या से निपटने में कारगर हो जाएंगे तो एक बार फिर हमारे देश के हज़ारों वर्ग किलोमीटर के “ख़ाली वन” (empty forest) हिरणों के कुलाचों और बाघों की दहाड़ से फिर गुलज़ार हो जाएंगे।
लेखक के बारे में: रज़ा काज़मी एक वन्यजीव संरक्षक, वन्यजीव इतिहासकार, कहानीकार और शोधकर्ता हैं। इनके लेख कई अख़बारों,ऑनलाइन मीडिया प्रकाशनों, मैगज़ीनों, और जर्नलस में प्रकाशित होते हैं। इनको 2021 में न्यू इंडिया फाउंडेशन फेलोशिप से नवाज़ा गया जिसके अंतर्गत ये अपनी किताब “टू हूम डज़ दी फॉरेस्ट बिलॉंग: दी फेट ऑफ ग्रीन इन दी लैन्ड ऑफ रेड” लिख रहे हैं। WCT में रज़ा एक संरक्षण संचारक (Conservation Communicator) के रूप में कार्यरत हैं, और हिन्दी और अंग्रेज़ी में लिखते हैं।
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