प्रकृति में उद्विकास की प्रक्रिया के दौरान अनेक जीवों ने बदलते पर्यावास में अपनी प्रजाति का अस्तित्व बनाए रखने के लिए विभिन्न सुरक्षा प्रणालियों को विकसित किया है। कुछ जीवों ने सुरक्षा के लिए झुंड में रहना सीखा, तो बिना हाथ-पैर भी सफल शिकार करने के लिए सांपो ने ज़हर व जकड़ने के लिए मज़बूत मांसपेशियाँ विकसित कीं। वहीं कुछ जीवों ने छलावरण विकसित कर अपने आप को आस-पास के परिदृश्य में अदृश्य कर लिया। शरीर के बालों को सुरक्षा के लिए कांटों में विकसित कर लेना भी इसी उद्विकास की कहानी का बहुत ही रुचिपूर्ण पहलू है।

शरीर के बालों को सुरक्षा के लिए कांटों में विकसित कर लेना उद्विकास की कहानी का एक बहुत ही रोचक पहलू है। हालाँकि इनकी काँटेदार ऊपरी त्वचा इन्हें अधिकांश परभक्षियों से बचा लेती है फिर भी परिवेश में लोमड़ी व नेवले जैसे कुछ चालाक शिकारी इन्हें अपने भोजन का मुख्य हिस्सा बनाने से नहीं चूकते। (फोटो: डॉ. चेतन मिश्र)
हड्डियों के विपरीत बालों के अवशेष प्रकृति में लंबे काल तकसंरक्षित नहीं हो पाते इसी कारण यह बताना मुश्किल है कि धरती पर पहला काँटेदार त्वचा वाला जीव कब अस्तित्व में आया होगा। फिर भी उपलब्ध पुरातात्विक अवशेषों के अनुसार फोलिडोसीरूस (Pholidocerus) नामक एक स्तनधारी जीव आधुनिक झाऊ-चूहों व अन्य काँटेदार त्वचा वाले जीवों (एकिड्ना व पौरक्यूपाइन (Porcupine) जिसे हिन्दी में सहेली/साहिल/साही भी कहते है) का पूर्वज माना जाता है, जिसका लगभग चार करोड़ वर्ष पूर्व अस्तित्व में आना ज्ञात होता है। झाऊ-चूहे वास्तव में चूहे नहीं होते अपितु छोटे स्तनधारी जीवों के अलग समूह जिन्हे ‘Erinaceomorpha’ कहते हैं उनसे संबंध रखते हैं । जबकि चूहे वर्ग Rodentia से संबंध रखते हैं जो अपने दो जोड़ी आजीवन बढ़ने वाले आगे के incisor दाँतो के लिए जाने जाते हैं ।
झाऊ-चूहे के शरीर पर पाये जाने वाले कांटे वास्तव में किरेटिन नामक एक प्रोटीन से बने रूपांतरित बाल ही होते हैं। यह वही प्रोटीन है जिससे जीवों के शरीर में अन्य हिस्से जैसे बाल, नाख़ून , सींग व खुर बनते हैं। किसी भी परभक्षी ख़तरे की भनक लगते ही ये जीव अपने मुंह को पिछले पैरों में दबाकर शरीर को “गेंद जैसी संरचना” में ढाल लेते हैं । इनकी त्वचा की मांसपेशियों में कुछ अनेच्छिक पेशियों की उपस्थिति यह दर्शाती है कि ख़तरे की भनक तक लगते ही तुरंत काँटेदार गेंद में ढल जाना कुछ हद तक झाऊ-चूहों की एक उद्विकासीय प्रवृति है। यह ठीक उसी तरह है जैसे काँटा चुभने पर हमारे द्वारा तुरंत हाथ छिटक लेना। सुरक्षा की इस स्थिति में झाऊ-चूहे कई बार परभक्षी को डराने हेतु त्वचा की इन्हीं मांसपेशियों को फुलाकर शरीर का आकार बढ़ा भी लेते हैं व नाक से तेज़ी से हवा छोड़ सांप की फुफकार जैसी आवाज़ निकालते हैं ।
विश्व भर में झाऊ चूहों की कुल 17 प्रजातियाँ पायी जाती हैं जो कि यूरोप, मध्य-पूर्व, अफ्रीका व मध्य एशिया के शीतोष्ण (temperate) व उष्णकटिबंधीय (tropical) घास के मैदान, काँटेदार झाड़ी युक्त, व पर्णपाती वनों (deciduous forests) में वितरित हैं। आवास के मुताबिक शीतोष्ण क्षेत्र की प्रजातियाँ केवल बसंत व गर्मी में ही सक्रिय रहती हैं एवं सर्दी के महीनों में शीत निंद्रा (Hibernation) में चली जाती हैं । भारत में भी झाऊ चूहों की तीन प्रजातियों का वितरण ज्ञात होता है जो कि पश्चिम के सूखे इलाक़ों से दक्षिण में तमिलनाडु व केरल तक वितरित हैं ।
भारतीय लंबे कानों वाला झाऊ चूहा (Indian long-eared Hedgehog) जिसे मरुस्थलीय झाऊ चूहा भी कहते हैं का वैज्ञानिक नाम Hemiechinus collaris है। यह प्रजाति सबसे पहले औपनिवेशिक भारत के ब्रिटिश जीव विज्ञानी थॉमस एडवर्ड ग्रे द्वारा 1830 में गंगा व यमुना नदी के बीच के क्षेत्र से पहचानी गयी थी। इसी क्षेत्र से इसका ‘टाइप स्पेसिमेन’ एकत्रित किया गया था जिसका चित्रण सर्वप्रथम ब्रिटिश मेजर जनरल थॉमस हार्डविकी ने “ इलस्ट्रैशन ऑफ इंडियन ज़ूलोजी” में किया था।

भारतीय लंबे कानों वाले झाऊ चूहे का सबसे पहला चित्र ब्रिटिश मेजर जनरल थॉमस हार्डविकी द्वारा बनाया गया था जो वर्ष 1832 में जॉन एडवर्ड ग्रे की पुस्तक “Illustrations of Indian Zoology” में प्रकाशित हुआ । जनरल थॉमस हार्डविक (1756- 3 Mar 1835) एक अंग्रेज़ी सैनिक और प्रकृतिवादी थे, जो 1777 से 1823 तक भारत में थे। भारत में अपने समय के दौरान, उन्होंने कई स्थानीय जीवों का सर्वेक्षण करनमूनों का विशाल संग्रह बनाया। वह एक प्रतिभाशाली कलाकार भी थे और उन्होंने भारतीय जीवों पर कई चित्रों को संकलित किया जिससे कई नई प्रजातियों का वर्णन किया गया । इन सभी चित्रों को जॉन एडवर्ड ग्रे ने अपनी पुस्तक “Illustrations of Indian Zoology” (1830-35) में प्रकाशित किया था।
यह प्रजाति मुख्यतः राजस्थान व गुजरात के शुष्क व अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों के साथ-साथ उत्तर में जम्मू, पूर्व में आगरा, पश्चिम में सिंधु नदी, व दक्षिण में पूणे तक पायी जाती है। गहरे भूरे व काले रंग के कांटों वाली यह प्रजाति अन्य दो प्रजातियों की तुलना में आकार में बड़ी होती है। इसके कानों का आकार पिछले पैरों के आकार के बराबर होता है जिस कारण इनके कान शरीर के कांटों की लंबाई से भी ऊपर दिखाई पड़ते हैं । झाऊ-चूहे की ये प्रजाति पूर्ण रूप से मरुस्थलीय जलवायु के अनुकूल है जो सर्दियों में अकसर शीत निंद्रा में चली जाती है। हालांकि इनका शीत निंद्रा में जाना इनके वितरण के स्थानों पर निर्भर होता है क्योंकि सर्दी का प्रभाव इनके वितरण के सभी इलाक़ों पर समान नहीं होता । मरुस्थलीय झाऊ-चूहे मुख्यतः सर्वाहारी होते हैं और कीड़ों, छिपकलियों, चूहों, पक्षियों व छोटे सांपो पर भोजन के लिए निर्भर होते हैं। ये पके हुए फल व सब्ज़ियाँ बिलकुल पसंद नहीं करते हैं ।
मरुस्थलीय झाऊ चूहे के विपरीत भारतीय पेल झाऊ-चूहा Paraechinus mircopus आकार में थोड़ा छोटा व पीले-भूरे कांटों वाला होता है। इसके सर व आंखो के ऊपर चमकदार सफ़ेद बालों की पट्टी गर्दन तक फैली होती है जो इसे मरुस्थलीय झाऊ-चूहे से अलग पहचान देती है। यह प्रजाति शीत निंद्रा में नहीं जाती परंतु भोजन व पानी की कमी होने पर अकसर टोर्पोर (शिथिल) अवस्था में चली जाती है। टोर्पोर अवस्था में जीव संसाधनों के अभाव की परिस्थिति में जीवित रहने के लिए अल्पावधि निंद्रा में चले जाते हैं एवं संसाधनों की बाहुल्यता पर वे पुनः सक्रिय हो जाते हैं । अपरिचित पर्यावास में आने पर ये प्रजाति अपने शरीर व कांटो को अपनी लार से भर लेती है। ऐसा शायदअपने इलाक़े को गंध द्वारा चिह्नित करने या नर द्वारा किसी मादा को आकर्षित करने के लिए हो सकता है परंतु इस व्यवहार का सटीक कारण एक शोध का विषय है। भारतीय पेल झाऊ-चूहे मरुस्थलीय झाऊ-चूहे की तुलना में बहुत दुर्लभ ही दिखाई देते हैं व इनका वितरण भी सीमित इलाक़ों तक ही है।
भारतीय पेल झाऊ-चूहे का सबसे पहला विवरण ब्रिटिश जीव विज्ञानी एडवर्ड ब्लाईथ ने 1846 में दिया था जब उन्होने इसका ‘टाइप स्पेसिमेन’ वर्तमान पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के भावलपुर क्षेत्र से एकत्रित किया । इस प्रजाति का भौगोलिक वितरण मरुस्थलीय झाऊ-चूहे के वितरण के अलावा थोड़ा ओर अधिक दक्षिण तक फैला हुआ है जहां यह तमिलनाडु व केरल में पाये जाने वाले मद्रासी झाऊ-चूहे या दक्षिण भारतीय झाऊ-चूहे Paraechinus nudiventris से मिलता है। मद्रासी झाऊ-चूहा भारत में झाऊ चूहे की सबसे नवीनतम पहचानी गयी प्रजाति है जो पहले भारतीय पेल झाऊ-चूहे की उप-प्रजाति के रूप में जानी जाती थी। इसका सबसे पहला ‘टाइप स्पेसिमेन’ जैसा की इसके नाम से ज्ञात होता है मद्रास से ही एक ब्रिटिश जीव विज्ञानी होर्सेफील्ड ने 1851 में संग्रहित किया था। हालांकि ये दोनों प्रजातियाँ दिखने में काफी समान होती हैं परंतु मद्रासी झाऊ-चूहा अपने अधिक छोटे कानों व हल्के भूरे रंग के कारण अलग पहचाना जा सकता है। मद्रासी झाऊ-चूहे का वितरण केवल तमिलनाडु व केरल के कुछ पृथक (isolated) हिस्सों से ही ज्ञात है जिससे इसे यहाँ की स्थानिक प्रजाति का दर्जा प्राप्त है। ये दोनों प्रजातियाँ मुख्यतः सर्वाहारी होती हैं जो कि अवसर मिलने पर कीड़ों व छोटे जीवों के साथ पके हुए फल व सब्ज़ियाँ भी चाव से खाती हैं।

भारतीय पेल झाऊ-चूहा (Indian pale Hedgehog) प्रजाति शीत निंद्रा में नहीं जाती परंतु भोजन व पानी की कमी होने पर अकसर टोर्पोर (शिथिल) अवस्था में चली जाती है। (फोटो: डॉ. चेतन मिश्र)
झाऊ–चूहे की ये तीनों प्रजातियाँ मुख्य रूप से निशाचर होती हैं तथा दिन का समय अपनी संकरी माँद में आराम करते ही बिताती हैं । इनकी माँद एक सामान्य पतली व छोटी सुरंग के समान होती है जिसे एक चूहा दूसरों के साथ साझा नहीं करता। साल के अधिकांश समय अकेले रहने वाले ये जीव केवल प्रजनन काल में ही साथ आते हैं जिसमें नर एक से अधिक मादाओं के साथ मिलन का प्रयास करता है। नर बच्चों के पालन-पोषण में कोई भागीदारी नहीं निभाते हैं। कुछ लेखों के अनुसार भारतीय पेल झाऊ-चूहों में स्वजाति-भक्षिता भी पायी जाती है, जिसमें नर व मादा दोनों ही भोजन की कमी में अपने ही बच्चों को खाते देखे गए हैं ।
हालाँकि इनकी काँटेदार ऊपरी त्वचा इन्हें अधिकांश परभक्षियों से बचा लेती है फिर भी परिवेश में लोमड़ी व नेवले जैसे कुछ चालाक शिकारी इन्हें अपने भोजन का मुख्य हिस्सा बनाने से नहीं चूकते। सांपो के शिकार के लिए कुख्यात नेवले इन छोटे काँटेदार जीवों को भी आसानी से शिकार बना लेते हैं। फ़ौना ऑफ ब्रिटिश इंडिया के एक लेख में जीव विशेषज्ञ ई. ओ-ब्रायन अपने एक अवलोकन के बारे में बताते हैं जिसमें एक भारतीय नेवला गेंद बने झाऊ-चूहे को पलट कर उसके बन्द मुंह के हिस्से पर तब तक वार करता है जब तक उसे शरीर का कोई हिस्सा पकड़ में नहीं आता। काफी लंबे चले इस संघर्ष के अंत में झाऊ चूहे का मुंह उसकी पकड़ में आ ही जाता है और वह उसे पास की झाड़ी में ले जाकर खाने लगता है।
मरुस्थलीय परिवेश में लोमड़ी द्वारा झाऊ-चूहे के शिकार की प्रक्रिया संबंधी एक किंवदंती बहुत प्रचलित है। इसके अनुसार चालाक लोमड़ी गेंद बने झाऊ-चूहे को पलट उसके बन्द मुंह के हिस्से पर पेशाब कर देती है। मूत्र की गंदी महक से निजात पाने झाऊ-चूहा जैसे ही अपनी नाक को हल्का सा बाहर निकलता है, लोमड़ी झट से उसे पकड़ लेती है और खींच कर उसे काँटेदार चमड़ी से अलग कर देती है। हालांकि इस किंवदंती की सटीकता पर चर्चा की जा सकती है लेकिन लोमड़ियों की मांदों के आस-पास अकसर दिखने वाले काँटेदार चमड़ी के ढेर सारे अवशेष लोमड़ी के भोजन में झाऊ चूहों की प्रचुरता को स्पष्ट ज़रूर करते हैं। झाऊ चूहों की इन भारतीय प्रजातियों की पारिस्थितिकी व व्यवहार संबंधित जानकारी बहुत ही सीमित है इसी कारण संरक्षण हेतु इनके वितरण व व्यवहार पर अधिक शोध की आवश्यकता है।
यह लेख सर्वप्रथम राजस्थान बाइओडाइवर्सटी पोर्टल पर प्रकाशित हुआ था
लेखक के बारे में: चेतन मिश्र वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन ट्रस्ट में एक पर्यावरण विज्ञानी हैं। उनका काम शुष्कभूमि पारिस्थितिक तंत्रों पर केंद्रित है, जहां वे विशेष रूप से पारिस्थितिकी अतिक्रमण के कारण होने वाले परिवर्तनों के प्रति देशी जैव विविधता समुदायों की प्रतिक्रिया पर शोध करते हैं।
अस्वीकारण: लेखक, वाइल्डलाइफ कंज़र्वेशन ट्रस्ट से जुड़े हुये हैं। इस लेख में प्रस्तुत किए गए मत और विचार उनके अपने हैं, और ऐसा अनिवार्य नहीं कि उनके मत और विचार, वाइल्डलाइफ कंज़र्वेशन ट्रस्ट के मत और विचारों को दर्शाते हों।
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