रेगिस्तान के जहाज़ ऊँट को उसके लम्बे समय तक बिना पानी पीये चलने की क्षमता के कारण बख़ूबी जाना जाता है । लेकिन अगर रेगिस्तान में बिना पानी लम्बे समय तक रहने का मुक़ाबला रखा जाये तो शायद ऊँट शीर्ष दस स्थानों में भी जगह नहीं बना पाये । थार रेगिस्तान के कुछ रहवासी ऐसे भी हैं जो कि महीनों तक बिना पानी के अपना गुज़ारा करते हैं । इन्ही में से एक छोटा ज़मीन के नीचे रहने वाला जीव है मरु-जर्बिल जो न केवल लंबे समय तक बिना पानी के रह सकता है बल्कि साथ ही मरुस्थल के कठिन से कठिन हालतों में भी अपना जीवनयापन करने में माहिर है ।
मरु-जर्बिल या डेज़र्ट जर्बिल रदंतुकों (rodents) की बिरादरी की ही एक प्रजाति है जो कि आकार, शरीर, व व्यवहारिकी में अन्य चूहों से बिल्कुल अलग होती है । मिट्टी सा गदला भूरा रंग, सिर के बालों में धसे छोटे कान, शरीर के बराबर या लंबी पूंछ जिसके सिरे पर बालों का एक गुच्छा होता है, और आगे के पैरों से दो गुना अधिक लंबे पिछले पैर जिसके सहारे खड़े रहते हुए ये आस-पास के परिसर की लगातार निगरानी रखते हैं – कुछ ऐसा होता है मरु-जर्बिल । मात्र 40-160 ग्राम वज़न और 12 से 14 सेंटीमीटर लंबाई वाला यह छोटा सा रेगीस्तानी चूहा आपके सामान्य स्कूल के स्केल के आकार जितना ही है!

पश्चिमी राजस्थान में अपने प्राकृतिक पर्यावास में एक नन्हा डेज़र्ट जर्बिल। चित्रण साभार: चेतन मिश्र
अपने छोटे आकार के कारण ये जीव मरुस्थल के अनेकों परभक्षियों का मुख्य भोजन है । शायद ऐसे ही ख़तरों से निपटने के लिए इन जीवों ने उद्विकास (evolution) के दौरान, अधिकांश मरुस्थलीय जीवों के विपरीत, दिन में सक्रिय रहना सीख लिया । हालांकि यह भी हो सकता है कि इनमें दिन-चर व्यवहार का विकास अन्य सस्थानिक प्रजातियों (sympatric species) के साथ संसाधनों की प्रतिस्पर्धा से निपटने के लिए हुआ हो हो। प्रकृति में अकसर दो समान आवास की प्रजातियों में समान संसाधनो के लिए अंतरजातीय संघर्ष (interspecies competition) कमज़ोर प्रजाति की विलुप्ति का कारण बनता है, इसी कारण अनेक सस्थानिक प्रजातियां अपनी गतिविधियों में समय के आधार पर विभाजन कर ये प्रतिस्पर्धा ख़त्म कर देती हैं जिससे दोनों का अस्तित्व बचा रहे ।
मरुस्थल के तपते दिनों में दिन में भी सक्रिय रहने का मतलब होता है अत्यंत कठोर वातावरण से सामना। अतः ये जर्बिल रेगिस्तानी जलवायु के लिए विशिष्ट रूप से अनुकूलित होते हैं । इनके पिछले पैर अन्य प्रजातियों की तुलना में काफी चौड़े व बालो से ढके होते हैं जो कि रेगिस्तान की तपती रेत पर आसानी से चलने में मदद करते हैं । डेज़र्ट जर्बिल भूमिगत सुरंगों के जटिल जाल में झुंड बनाकर रहते हैं जो कि कुछ सेंटीमीटर से 2 मीटर तक गहरी हो सकती हैं । समतल रेतीली सतह या रेत के टीलो में सुरंगों की गहराई 5 से 10 सेमी॰ ही होती है जबकि छोटी झाड़ियों जैसे कि बेर के तले इक्कठी रेत में ये काफी गहरी सुरंगें बनाते हैँ । झाड़ियों की जड़ें इनके बिलों में अतिआवश्यक नमी बनाए रखती हैं जो कि गर्मी के दिनों में जीवनदायी साबित होती है । इनकी सुरंगों का तापमान वर्ष भर लगभग एक समान (33 से 37 डिग्री सेल्सियस) बना रहता है जो इन्हें सर्दी की रातों में गर्म व गर्मी के दिनों में ठंडा रखता है ।
डेज़र्ट जर्बिल अपने बिलों के आस पास ही भोजन की तलाश करते हैं व थोड़ा भी ख़तरा महसूस होने पर तुरंत नजदीकी सुरंग में दौड़ जाते हैं । बिलों से अधिक दूर नहीं जाने की इनकी प्रवृत्ति के कारण इनमें सुदूर प्रवास संबंधित एक दिलचस्प व्यवहार देखा गया है । ये जर्बिल एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर लंबी दूरी बिल बनाते हुए ही तय करते हैं । अतः नए आवासों की तलाश में पुरानी बस्ती के सारे जर्बिल कुछ ही दूरी पर नए बिल बनाना शुरू करते हैं । और ये सिलसिला जारी रहता है अर्थात जब ये नयी बस्ती तैयार हो जाती है तो सभी जर्बिल यहाँ रहते हुए ही कुछ ही दूरी पर एक और बस्ती खोदना शुरू कर देते हैं। इस प्रकार नए आवासों की यात्रा बदस्तूर सुरंगों के ज़रिए जारी रहती है ।
झुंड में रहने का सबसे बड़ा फायदा होता है शिकारियों से सुरक्षा । किसी भी शिकारी की मौजूदगी की भनक लगते ही ये जर्बिल अपने पिछले चपटे पैरों को रेत में तेज़ गति से लगातार पटकते हैं जिससे एक मृदंग की ताल जैसी ध्वनि उत्पन्न होती है । इस आवाज़ का मुख्य उद्देश्य बस्ती में अन्य साथियों को शिकारी की मौजूदगी से अवगत करना होता है । पहले जर्बिल के पैर पटकने की आवाज़ सुन दूसरे साथी भी एक-एक कर पैर पटकने लगते हैं और कुछ ही सेकेंड में शिकारी की मौजूदगी का संदेश आस पास की सभी बस्तियों में फैल जाता है । अनेकों जर्बिल के एक साथ पैर पटकने की आवाज़ वाक़ई में धीमी आवाज़ में बज रहे मृदंग के समान प्रतीत होती है । अकसर दो नर मादा के लिए प्रतिस्पर्धा के दौरान भी ऐसा मृदंगवादन करते देखे जाते हैं ।

लेखक के शोध के दौरान मानक प्रोटोकॉल के तहत पकड़ा गया गया एक जर्बिल। कुछ ही मिनटों में शोध के लिए ज़रूरी डाटा इकत्रित कर इस जर्बिल को वापस उसके पर्यावास में छोड़ दिया गया। चित्रण साभार: चेतन मिश्र
भोजन में ये जर्बिल मुख्यतः शाकाहारी होते हैं तथा विभिन्न घासों के बीज, तने , पत्तियाँ, व फूल खाते हैं । विभिन्न ऋतुओं में ये जर्बिल मौसमी फल जैसे बेर व केर भी खाते हैं । आवास में भोजन की बाहुल्यता के समय ये अपने बिलों में भोजन का भंडारण करते हैं जो सूखे के समय खाने की कमी से निपटने के लिए सहायक होता है । ये जीव भी रेगिस्तान के अनेकों अन्य जीवों के समान बिना पानी के कई महीनों तक गुज़ारा कर सकते हैं । अमूमन इनके आवासों में साल भर पानी की उपलब्धता ही नहीं होती है । ये अपने शरीर में पानी की ज़रूरत को भूमिगत कन्द व मूलों का सेवन कर ही पूरा करते हैं । इन जीवों की आबादी मरुस्थल की खाद्य शृंखला का मुख्य आधार है जो लोमड़ी, सियार, सियाहगोश (caracal), सर्पों जैसे परभक्षियों के साथ अनेक शिकारी पक्षियों का अस्तित्व भी बनाए रखते हैं । इसीलिए डेज़र्ट जर्बिल की आबादी मरुस्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र में संतुलन बनाए रखने क लिए आवश्यक है ।
तो ये थी कहानी मरुस्थल के ड्रमर डेज़र्ट जर्बिल की!
लेखक के बारे में: चेतन मिश्र वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन ट्रस्ट में एक पर्यावरण विज्ञानी हैं। उनका काम शुष्कभूमि पारिस्थितिक तंत्रों पर केंद्रित है, जहां वे विशेष रूप से पारिस्थितिकी अतिक्रमण के कारण होने वाले परिवर्तनों के प्रति देशी जैव विविधता समुदायों की प्रतिक्रिया पर शोध करते हैं।
अस्वीकारण: लेखक, वाइल्डलाइफ कंज़र्वेशन ट्रस्ट से जुड़े हुये हैं। इस लेख में प्रस्तुत किए गए मत और विचार उनके अपने हैं, और ऐसा अनिवार्य नहीं कि उनके मत और विचार, वाइल्डलाइफ कंज़र्वेशन ट्रस्ट के मत और विचारों को दर्शाते हों।
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