कछुओं का संबंध सामान्यतः पानी से देखा जाता है । सूखे रेगिस्तान के तपते मैदानों में विचरण करते हुए कछुए का चित्रण शायद ही आमजन में सहज होगा । लेकिन भारत में कछुए की एक प्रजाति ऐसी है जिसने सूखे रेगिस्तान से तो लड़ना सीख लिया, लेकिन हमारे गृह के सबसे बड़े परभक्षी से चलते संघर्ष में हारती प्रतीत हो रही है । कछुए की इस प्रजाति को इसका नाम इसके कवच पर दिखने वाली तारेनुमा चित्रकारी के कारण मिला है । स्थलीय कछुओं की ये प्रजाति जन्तु जगत के टेस्टूडिनेडी (Testudinidae) नामक परिवार से संबंध रखती है । टेस्टूडिनेडी परिवार की पचास से अधिक प्रजातियों में से एक भारतीय तारा कछुआ (Geochelone elegans) एक मध्यम आकार का स्थलीय कछुआ है, जो भारतीय उप महाद्वीप की एक स्थानिक प्रजाति है । स्थानिक (एन्डेमिक) प्रजातियाँ वह प्रजातियाँ होती है जो किसी क्षेत्र विशेष के अलावा कही और नहीं पायी जाती है । हालाँकि भारत में पायी जाने वाली स्थलीय कछुओं की यह सबसे बड़ी प्रजाति है । इसका वितरण उत्तर-पश्चिमी भारत और पाकिस्तान के दक्षिण-पूर्वी चरम क्षेत्र, दक्षिण-पूर्वी और दक्षिणी भारत, और श्रीलंका के क्षेत्रों में पाया जाता है । यह प्रजाति मुख्य रूप से शाकाहारी होती है, और विभिन्न घासों, शाकीय रसीले पौधों, फलों और गिरे हुए फूलों का सेवन करती है। इसके अलावा, सेंटीपीड, कीड़े, घोंघे, कुत्तों और पक्षियों की बीट, और सड़े हुए मांस का भी भक्षण करते देखे गए है।
फोटो क्रेडिट: चेतन मिशर, वाइल्डलाइफ कंझरवेशन ट्रस्ट
कछुओं का यह परिवार धरती पर ट्राइयासिक काल से अस्तित्व में है । यह लगभग २० करोड़ वर्ष पूर्व का वही समय है जब धरती पर डाइनासौर जैसे भीमकाय सरीसृपों की शुरुआत हुई थी । लाखों वर्षों के अपने अस्तित्व की यात्रा में इन कछुओं ने धरती से कई प्रजातियों के विलुप्ति की कहानी स्वयं देखी होगी परंतु फिर भी बदलते कठिन पर्यावरण व स्थलाकृतियों के बीच खुद को सफलता से बचाए रखा । हाल ही के एक शोध में पाया गया की भारत में व्याप्त तारा कछुओं की आबादी लगभग २० लाख वर्ष पूर्व उद्विकास (ईवोलूशन) के दौरान दो उप-प्रजातियों में बंट गयी थी । एक उप-प्रजाति जो उत्तर पश्चिम भारत में पायी जाती है व दूसरी जो दक्षिण पूर्वी भारत में पायी जाती है । यह शोध कुछ रोचक तथ्य सामने रखता है। आनुवांशिक (जीनेटिक) शोध बताता है की कछुओं की इस प्रजाति ने अपनी आबादी में पिछले २० लाख वर्षों के उद्विकास के दौरान कोई खासा उतार-चड़ाव नहीं देखा है । दूसरा यह की भारत में पायी जाने वाली इस प्रजाति में उच्च आनुवांशिक विविधता देखी गयी है । आनुवांशिक विविधता किसी प्रजाति के भीतर जीनों की विभिन्नताओं को दर्शाती है, जो उस प्रजाति की अनुकूलन क्षमता और जीवित रहने की संभावना का पर्याय होती है । उच्च आनुवांशिक विविधता किसी भी प्रजाति की पर्यावरण परिवर्तन और रोगों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करती है ।
तारा कछुओ का मुख्य आवास शुष्क व अर्ध-शुष्क घास के मैदान, झाड़ीदार जंगल , और तटीय झाड़ीदार भूमि है, लेकिन यह मानव-प्रधान क्षेत्रों , जैसे कि कृषि भूमि, और वृक्षारोपण क्षेत्र में भी आमतौर पर निवास करते है । ये मानसून की बारिश के दौरान सबसे अधिक सक्रिय होते है । मॉनसून में इनका अधिकतर समय भोजन की तलाश व संभोग में व्यतीत होता है । मानसून के मौसम के बाहर यह प्रजाति मुख्य रूप से गोधूलि वेला में सक्रिय होती है, जब आमतौर पर यह सुबह जल्दी और देर शाम को बाहर निकलती है, और दिन और रात के बाकी समय में झाड़ियों या घास के गुच्छों के नीचे छिपी रहती है । हालांकि इनका प्रजनन काल इनके आवास पर निर्भर करता है, जो की पश्चिम के शुष्क आवासों में मई व जून होता है जबकि दक्षिण पूर्व के आद्र आवासों में मार्च से जून व अक्टूबर से जनवरी दो बार होता है । मादा जमीन के नीचे १०-१५ सेमी की गहराई में अपना घोंसला बनाती है जिसका तापमान व नमी न बहुत ज़्यादा होता है न बहुत कम।
फोटो क्रेडिट: चेतन मिशर, वाइल्डलाइफ कंझरवेशन ट्रस्ट
मादा कछुओं के सामान्य करापेस (अर्थात कवच) के ऊपरी डोम की लंबाई ३२ सेमी तक होती है, जबकि नर कछुओं की लंबाई २६ सेमी तक होती है, हालांकि ५० सेमी से अधिक लंबाई की मादा भी इतिहास में दर्ज की गईं है । प्रजनन के दौरान नर मादाओं का पीछा करते हैं और अपनी मोटी गुलर स्क्यूट्स (“गुलर स्क्यूट्स” (Gular Scutes) कछुओं के शरीर के निचले हिस्से, खासकर गले के पास के भाग में स्थित एक विशेष प्रकार के शल्क या कवच प्लेटों को कहा जाता है। ये स्क्यूट्स कछुओं के गले और सामने के हिस्से की सुरक्षा के लिए होते हैं। आमतौर पर, ये प्लेटें कछुओं में प्रजनन और प्रतिस्पर्धा के समय विशेष रूप से उपयोगी होती हैं, जब नर कछुए इनका उपयोग मादा को आकर्षित करने या प्रतिद्वंद्वी नर को दूर धकेलने के लिए करते हैं।) से मादाओं को टक्कर मारते हैं और धक्का देते हैं । यह इनका मादा को संभोग के लिए न्योता देने का तरीका है । यदि मादा रुक जाती है तो इसका मतलब वह संभोग क लिए राज़ी है । प्रजनन के मौसम के दौरान अपनी संभावित मादा साथी से अन्य प्रतिद्वंद्वी नारों को दूर रखने के लिए आक्रामक नर प्रतिद्वंद्वी नर को तब तक टक्कर मारते जब तक की वह कवच के बल उल्टा ना गिर जाये। विजयी नर को मादा के साथ संभोग का मौका मिलता है।
मादा अपने घोंसला बनाने के स्थलों के चयन में विशेष ध्यान देती है । घोंसला बनाने के स्थल की मिट्टी न तो बहुत गीली होनी चाहिए और न ही बहुत सूखी, बल्कि इतनी मुलायम होनी चाहिए कि उसे खोदा जा सके । अंडों के ऊष्मायन (incubation) में आमतौर पर ४७ दिन लगते हैं, लेकिन कुछ प्रकरण में २५७ दिनों तक का समय भी दर्ज किया गया है । नवजात कछुए घोंसले में तब तक रह सकते हैं जब तक कि बारिश मिट्टी को नरम नहीं कर देती, जिससे वे बाहर निकल सकें । बदलते जलवायु व खनन के कारण इनके घोंसले बनाने के आवास खतरे में है जिसका प्रभाव इनके प्रजनन पर भी पड़ता है । नवजात शिशु पहली बारिश के साथ ही ज़मीन से बाहर निकलते है । इन शिशुओं के प्रजनन लायक वयस्क होने में ६ से १० वर्षो का समय लगता है । तब तक इनका उद्धेश्य अपने को विभिन्न संकटों से बचाते हुए प्रतिदिन भोजन का इंतजाम करना होता है । प्रकृति में तारा कछुओं जैसे कठोर कवच धारी जीवों के शिकारी कम ही होते है । इन्हें सबसे बड़ा खतरा इन्सानों से ही है । मानसून के मौसम के बाहर, यह प्रजाति प्रायः सुबह जल्दी और शाम देर से बाहर निकलती है और दिन और रात के बाकी समय झाड़ियों या घास के गुच्छों के नीचे छिपी रहती है। इस दौरान कभी-कभी बच्चे भी बारिश में निकले कछुओं के साथ खेलते देखे जा सकते है और कई बार वो इन कछुओं को अपने साथ घर उठा लाते हैं।
अंतर्राष्ट्रीय वन्यजीव व्यापार के लिए अवैध संग्रहण इस प्रजाति के लिए सबसे गंभीर चिंता का विषय है । संख्यात्मक रूप से, भारतीय तारा कछुए विश्व के अवैध वन्यजीव व्यापार में सबसे अधिक जब्त की जाने वाली कछुआ प्रजाति है। लाखों सालो के बदलते पर्यावरण से लड़ने में ये सक्षम प्रजाति पिछले १००-१२० वर्षों में बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप के सामने बेबस नज़र आती है । तारा कछुओं की ग़ैर कानूनी तस्करी के चलते पिछले कुछ दशकों में इनकी संख्या में भारी गिरावट देखी गयी है । वैश्विक स्तर पर कछुओं की विभिन्न प्रजातियों के ग़ैर-कानूनी व्यापार का सबसे बड़ा हिस्सा भारतीय तारा कछुओं का है जो इन पर मंडरा रहे मानवीय खतरे का स्तर दर्शाता है । हाल ही में वर्ष २०२२ में चेन्नई एयरपोर्ट पर ३००० से अधिक तारा कछुओं को ज़ब्त किया गया था । इससे पूर्व २०२१ में भी २००० से अधिक तारा कछुओं को चेन्नई एयरपोर्ट से ज़ब्त किया गया जिनकी तस्करी थायलैंड तक होनी थी । TRAFFIC के एक विश्लेषण के अनुसार, भारत में सितंबर २००९ से सितंबर २०१९ तक १० साल की अवधि में अवैध व्यापार में कम से कम १,११,३१२ कछुओं की बरामदगी की गयी है, यानि हर साल ११,००० से अधिक कछुओं की बरामदगी । तारा कछुओं की कठोरता और बिना भोजन के १०-१५ दिनों तक जीवित रहने की क्षमता के कारण भी इनकी तस्करी आसान हो जाती है । अवैध वन्यजीव व्यापार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा संभवतः पकड़ा ही नहीं जाता और रिपोर्ट किए गए मामले केवल वास्तविक व्यापार का एक अंश होते हैं, जबकि वास्तविक संख्या इससे कहीं अधिक हो सकती है।
भारतीय तारा कछुओं का अवैध व्यापार मुख्यतः अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में उनकी पसंदीदा पालतू जीव व भोजन के रूप में भारीमांग के कारण होता है । दक्षिण पूर्वी एशिया में इनका सेवन काफी चाव से किया जाता है । भारत में इन्हें सौभाग्य के प्रतीक के रूप में भी देखा जाता है, जिसके कारण इनकी स्थानीय खपत भी बढ़ रही है । इसके विपरीत हमारे पड़ोसी श्रीलंका में इन्हीं कछुओं को बुरे भाग्य का प्रतीक माना जाता है । स्वछ्न्द विचरण करने वाले जीव को कुछ मीटर के पिंजरे में कैद रखने से भाग्य कैसे आता है यह समझ से परे है । परंतु कैद में उसकी छीनी हुई स्वतन्त्रता से उठी पीड़ा से यदि कुछ आ सकता है तो बस दुर्भाग्य।
भारत में तारा कछुओं को भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) संशोधन अधिनियम २०२२ के तहत संरक्षित किया गया है, जहां इसे अनुसूची (Schedule) I में रखा गया है, जो की बाघों को दी गई कानूनी सुरक्षा के समान है । अतः इन कछुओं को भारत में पालना या इनका व्यापार करना अवैध हो जाता है । हाल ही में इन कछुओं को लुप्तप्राय वन्यजीवों और वनस्पतियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन (CITES) के परिशिष्ट (Appendix) II से उठाकर परिशिष्ट I में सूचीबद्ध किया गया है जो की चिंता का विषय है । CITES के परिशिष्ट I उन प्रजातियों की सूची है जिन्हें गैरकानूनी व्यापार के चलते विलुप्ति का खतरा सबसे अधिक है । आम जनता में वन्यजीवों के प्रति जागरूकता व सही वैज्ञानिक जानकारी का प्रसारण इन कछुओ के सुरक्षित भविष्य के लिए आवश्यक है । हमे यह समझना होगा की हमारा सौभाग्य वन्यजीवों के वनों में स्वछंद विचरण में है, न की हमारे घरों में।
लेखक के बारे में: चेतन मिश्र वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन ट्रस्ट में एक पर्यावरण विज्ञानी हैं। उनका काम शुष्कभूमि पारिस्थितिक तंत्रों पर केंद्रित है, जहां वे विशेष रूप से पारिस्थितिकी अतिक्रमण के कारण होने वाले परिवर्तनों के प्रति देशी जैव विविधता समुदायों की प्रतिक्रिया पर शोध करते हैं।
अस्वीकारण: लेखक, वाइल्डलाइफ कंज़र्वेशन ट्रस्ट से जुड़े हुये हैं। इस लेख में प्रस्तुत किए गए मत और विचार उनके अपने हैं, और ऐसा अनिवार्य नहीं कि उनके मत और विचार, वाइल्डलाइफ कंज़र्वेशन ट्रस्ट के मत और विचारों को दर्शाते हों।
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