याद रखने योग्य सैर: मछुआरों का पैदल देशान्तर गमन

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मैंने, मनुष्यों, जानवरों और नदी के बीच संबंधों के जटिल जाल को समझने की कोशिश करते हुये, नदी जैव विविधता, विशेष रूप से गंगा नदी डॉल्फ़िन के संरक्षण के लिए, 25 वर्षों से अधिक समय से, बिहार के नदी परिदृश्यों में,मैंने काम किया है और अभी भी काम कर रहा हूँ। इन सभी वर्षों में, मैंने नदियों के किनारे रहने वाले, कई मछली पकड़ने वाले समुदायों के साथ संवाद किया है।

लेखक (सबसे दाएँ) बिहार में मछुआरों के साथ। ©दीपक कुमार सिंह

इन लोगों ने मुझे, अपने कठिन जीवन और दैनिक संघर्षों के बारे में कई कहानियाँ सुनाई हैं – जहां उन्हें, दूसरों की मेहनत का फल छीन कर जीने वाले लोगों से, सीधे तौर पर, जान का खतरा होता है, जहां मछली का स्टॉक दिन पर दिन गिरता जा रहा है, और जीवन की मांगें बढ़ती ही जा रही हैं। गंदगी की इस स्थिति में, उनकी एकमात्र आशा, हर दिन, नदी में लंबे समय तक रहने के बाद, पकड़ी गई मछलियों को, अपने परिवार के पास वापिस ले जाना है। इन दबावों के अलावा, अब उन्हें दो नए दबावों का सामना करना पड़ रहा है: वन्यजीव संरक्षण के बारे में चिंतित लोगों से, और दूसरा, स्वयं प्रकृति से, जो मानव निर्मित जलवायु परिवर्तन के कारण, बड़ी तेज़ी से बदल रहा है। जैसा कि कोई कल्पना कर सकता है,इन सभी कारकों के कारण , मछुआरों को इनसे निपटना,कठिन हो रहा है, जिसके परिणामस्वरूप, उन्हें, अपने घरों से दूर, काम की निरंतर तलाश करनी पड़ती है/वे ज़्यादातर, निर्माण में, मज़दूरों के रूप में, बड़े पैमाने पर, अनौपचारिक और मौसमी काम के माध्यम से, बुनियादी जीविकोपार्जन के लिए, खेतों, रेत खनन, प्लाइवुड उद्योग, या दूर के राज्यों के जल निकायों में मछली पकड़ने की प्रणालियों में काम करते हैं। इस तरह का विवशतापूर्ण प्रवास की तलाश यात्रा, किसी उद्देश्य के लिए भटकना और जीवित रहने के लिए आवश्यक है।

इतनी सारी भावनात्मक कहानियाँ सुनने के बाद, , हाल ही के एक क्षेत्रीय दौरे में मुझे यह एहसास हुआ, कि यहां, मानवता की अदम्य भावना और उत्साह के बारे में भी खोजें होनी हैं। बिहार में, गोपालगंज ज़िले के गंडक क्षेत्र में, मछली पकड़ने वाली बस्ती, यादोपुर पथरा, के मछुआरों के साथ मेरी बातचीत में, उन्होंने मुझे अपने समूह के मछुआरों द्वारा, नियमित रूप से असम के एक छोटे से शहर, लखीपुर तक पहुँचने के लिए, १००० किमी से अधिक, लंबी दूरी, पैदल तय करने की कहानियाँ सुनाईं। ये पैदल प्रवास, लगभग ४०-५० साल पहले हुआ करते थे, जब रेलवे और सड़क कनेक्टिविटी आज जैसी सुदूर नहीं थी। मछुआरों को वह दूरी तय करने में, पाँच से छह महीने लगते थे। वे, वहां तालाब खोदने वाले ठेकेदारों के अधीन, मज़दूरी करने जाते थे। वहां काम पूरा करने के बाद, मछुआरे, फिर अपने घरों की ओर चल पड़ते थे। मछुआरों ने आगे बताया, कि कुछ लोग काम के लिए साइकिल से भी कोलकाता गए हैं। आज, २०२३ में, अभी भी एक ऐसा व्यक्ति है, जो बिहार में १०० किमी से अधिक दूरी वाले स्थानों पर,गोपालगंज से पैदल आता-जाता है!

कई लोग साल में एक ही बार, तीर्थयात्रा के लिए पैदल चलते हैं। कोविड- १९ संकट और अव्यवस्था के बीच, कई लोगों को अपने घरों तक पहुँचने के लिए, लंबी दूरी, पैदल या फिर साइकिल से तय करनी पड़ी थी !लेकिन, ये प्रवास अलग है! मेरा मानना है, कि प्रवास हमेशा मछुआरों के जीवन का एक अभिन्न अंग रहा है। शायद उनके पैरों ने, आशा की पुकार सुन ली और अपनी अंतहीन यात्रा शुरू कर दी। वे कहते हैं, कि हम सभी प्रवासी हैं, लेकिन कुछ लोग, हमेशा अन्य लोगों की तुलना में, अधिक प्रवासी होंगे।


लेखक के बारे में: सुभासिस डे, १९९८ से, नदी तटीय मछली पकड़ने वाले समुदायों के साथ, मिलकर काम कर रहे हैं, जब वे टी.एम. भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर, बिहार में गंगा नदी डॉल्फिन संरक्षण परियोजना में शामिल हुए थे। मछुआरों के विकास में सहायता करने के लिए, समाधानों की पहचान करने और नदी मत्स्य पालन और जैव विविधता के स्थायी संरक्षण में, सामुदायिक स्तर की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए, सुभासिस, अनुसंधान निष्कर्षों के पारिस्थितिक और समाजशास्त्रीय अनुप्रयोगों में गहरी रुचि रखते हैं। वह, WCT के रिवराइन इकोसिस्टम्स एंड लाइवलीहुड्स (REAL) कार्यक्रम का हिस्सा हैं। सुभासिस, IUCN सिटासियन स्पेशलिस्ट ग्रुप के सदस्य भी हैं

अस्वीकारण: लेखक, वाइल्डलाइफ कंज़र्वेशन ट्रस्ट से जुड़े हुये हैं। इस लेख में प्रस्तुत किए गए मत और विचार उनके अपने हैं, और ऐसा अनिवार्य नहीं कि उनके मत और विचार, वाइल्डलाइफ कंज़र्वेशन ट्रस्ट के मत और विचारों को दर्शाते हों।


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