मई,२०२२ का एक दिन था, और सुबह के ९.३० बज रहे थे और वन,कड़ी धूप के चलते,एकदम सुनसान,वीरान हो गया था।जैसे ही हमारी गाड़ी, एक छोटी लेकिन खड़ी ढलान पर गयी,वह हमें एक बड़े बांध की तरफ ले गयी, जिसने पानी के एक मध्यम आकार के तालाब को घेर रखा था,मैंने कुछ हलचल देखी- मैंने देखा, की एक अल्पवयस्क नर बाघ,बांध के बीच में,एक छायादार पैच स्मैक में(एक प्रकार के जहाज़ का एक भाग या पट्टी )में बैठने वाला था।उसने सरसरी निगाह से हमारी गाड़ी को देखा, और फिर अपनी नज़र दूसरी तरफ कर लीं।पाँच मिनट के ग्रूमिंग सेशन(अलंकरण/सजने सवरने) के बाद,वह खड़ा हुआ,अंगड़ाई ली और बांध के रास्ते,लेकिन, हमसे दूर,वह चलने लगा।कुछ ही मिनटों में हमने,एक वयस्क गौर को,लगभग ८० मिटर की दूरी पर,उस अल्पवयस्क बाघ को घूरते हुए देखा,लेकिन,दुनिया के इस सबसे बड़े जंगली बैल को, उस अल्पवयस्क बाघ ने,बड़े उदासीन,निर्लिप्त भाव से देखा, और फिर आगे बढ़ गया, ऐसा प्रतीत करते हुए की गौर वहाँ मौजूद ही नहीं था।गौर का भी ऐसा ही कुछ हाल था,उस अल्पवयस्क बाघ को देखकर,लेकिन उसने अपनी नज़र,उस अल्पवयस्क बाघ से नहीं हटायी।जब दोनों की बीच की दूरी,सिर्फ २५ मीटर रह गयी थी,वह अल्पवयस्क बाघ, बांध की भीतरी ढलान के साथ नीचे उतरा,विपरीत किनारे के चारों ओर घूमा,और पानी के पास एक नम जगह पर बैठ गया।अब बाघ पर नज़र नहीं रखने के कारण,गौर,तेज़ी से मुड़ा और झाड़ियों में गायब हो गया।
मैंने अक्सर इन दो बड़े स्तनधारियों के बीच मुठभेड़ देखी है,लेकिन आज बात कुछ अलग थी,क्योंकि, शिकारी और शिकार, दोनों ने, एक-दूसरे के प्रति सम्मानजनक निडरता का प्रदर्शन किया था।जब भी यह दोनों स्तनधारी मिलते हैं, तो हम इन्सानों को, यह अपेक्षा होती है की दोनों के बीच कुछ होगा,परंतु,इन दोनों स्तनधारियों के लिए,जल समिति में,यह एक आम सी बात है।
मैं अपना अधिकांश समय, अपने जीवन का, वन में व्यतित करता हूँ,वह वन,जिसकी सुरक्षा करने के लिए, मैं जी रहा हूँ, और, उस दिन सुबह,मैं,अपने परिवार के साथ,अतुल्य सतपुड़ा टाइगर रिज़र्व्स चूर्णा रेंज,जो मध्य प्रदेश में है,गाड़ी से उसकी सैर के लिए निकला था। मैंने वॉटरहोल की ओर जाना चुना,यह मैं अच्छी तरह से जानता था ,की बाघ, पानी के साथ, अपने रिश्ते में, अधिकांश बिल्लियों में, अद्वितीय है,वह भी विशेष रूप से गर्मी के दिन के सबसे गर्म भाग के दौरान।
इसके बावजूद की पैंथेरा टाइग्रिस की जनसंख्या, विश्व के अधिकांश देशों के १३ टाइगर रेंज में, गिरावट आयी, भारत अपेक्षाकृत बड़ी वन भूमि को अलग करने में कामयाब रहा,धारीदार शिकारी की रक्षा करने के लिए।
प्रकृति,खुद को ठीक कर लेती है
सतपुड़ा टाइगर रिज़र्व,महान भारतीय संरक्षण कहानी का अपनेआप में एक उभरता सितारा है।एक दशक से भी कम,यह अति सुंदर, २००० sq km, वर्ग में फैला हुआ टाइगर रिज़र्व,एक समय पर, अपनी आवशयकताओं को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहे समुदायों के कब्ज़े से परेशान था।जबकि इसमे मुख्य तौर पर ५५ से भी अधिक गांव थे,पहला व्यवस्थित बाघ आकलन अभ्यास,वनजीवन संरक्षण ट्रस्ट द्वारा किए गए कार्य में,२० से कम वयस्क बाघों का खुलासा हुआ।इससे प्रति १०० sq km वर्ग में, एक बाघ के नीचे का घनत्व का पता चलता है।
आज,हालाकिं,उन गांवों में से अधिकांश ने चुना है,वास्तव में याचिका दायर की है ,सतपुड़ा से बाहर जाने में सहायता के लिए,बड़े पैमाने पर क्योंकि,युवा पीढ़ी की महत्वाकांक्षाएं बदल गयी हैं।और इसीलिए भी,क्योंकि, शाकाहारी जीवों से घिरा हुआ,और पौधे खाने वाले कीड़ों से भरा हुआ,लोगों ने नियमित रूप से अपनी फसल का एक बड़ा प्रतिशत खो दिया।उनके पशुओं को भी शिकारियों से लगातार ख़तरा रहता था,और ना तो स्कूल और ना ही चिकित्सा सुविधाएं,वहाँ उपलब्ध थीं।
जब गाँव अंततः बाहर चले गए,प्रबंधन आदानों(जानकारी) की सहायता से,कृषि क्षेत्र लगभग जादुई ढंग से घास के मैदानों में बदल गए,गाँव के तालाब, जंगली प्रजातियों और जंगलों की आग के लिए, एकांत जल स्रोत के रूप में काम करते थे-जिसे महुआ फूल और तेंदू पत्ता संग्रहण की सुविधा के लिए स्थापित किया गया था-बहुत ही कम हो गया।और जैसा सोचा था,जंगली शिकार की आबादी वापस लौट आयी,क्योंकि मानवजनित दबाव कम हो गए।पशुधन, अब चारे के लिए, जंगली शाकाहारी जानवरों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर रहे थे,और हिरण,गौर,बंदर और जंगली सुअर की संख्या में बढ़ोतरी के साथ,बाघों की संख्या में भी बढ़ोतरी देखी गयी।और इसके अधिक , उन्नत वनस्पति आवरण के साथ, जल व्यवस्था और मिट्टी की नमी में सुधार हुआ,और मिट्टी के जीवों के स्वास्थ्य में भी सुधार हुआ।
आज, सतपुड़ा टाइगर रिज़र्व,५० वयस्क बाघों को,उनके वयस्क जीवन के चरम पर पहुँचने के बाद, उनका समर्थन करता है,युवा बाघों ने जंगली गलियारों से होकर प्रवास करना, शुरू कर दिया है,अन्य बाघ स्रोत आबादी वाले क्षेत्रों में, जैसे,पेंच,मध्य प्रदेश में और मेलघाट,महाराष्ट्र में।भारत में ऐसे अपेक्षाकृत त्वरित बदलाव दुर्लभ नहीं हैं।पिछले दो दशक से,कई उप-इष्टतम बाघ आवास, वापस लौट आए हैं,राज्य वन विभाग और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) की सहायता से।
यह बात ध्यान रखने योग्य है,भारत के सभी बाघों में से, ७५%,१८ बाघ राज्यों में से केवल छह में मौजूद हैं।यह हैं मध्य प्रदेश, कर्नाटक,उत्तराखंड,महाराष्ट्र असम,और तमिल नाडु।
अंकों का खेल
अखिल भारतीय बाघ अनुमान, २०२२, के अनुसार,भारत ने यह एक बार फिर सिद्ध किया है,की भारत कई मायनों में अनोखा है।कई संरक्षणकर्ताओं और वैज्ञानिकों ने,बाघों को,१९९० के दशक के अंत में,लगभग नकार सा दिया था-उनका दृढ़ विश्वास था,की दुनिया की सबसे बड़ी बिल्ली, २१वीं सदी देखने के लिए जीवित नहीं रह पाएगी। तीन दशक बाद,हालाकिं भारत,इस तथ्य पर उचित गर्व कर सकता है,की बाघ ना केवल जीवित रहे,अपितु उनकी जनसंख्या में भी ,मापनीय वृद्धि देखी गयी।अच्छे कारणों के साथ,बाघ परियोजना को,इसे दुनिया का सबसे सफल संरक्षण और १९८० के दशक में, अपनी तरह का पुनःबहाली कार्यक्रम माना जाता है,और जो अभी भी डींगें हांकने का अधिकार रखता है। यहां तक की पैंथेरा टाइग्रिस की आबादी,१३ बाघ रेंज वाले अधिकांश देशों में, गिरावट होने के बाद, भारत अपेक्षाकृत, बड़ी वन भूमि को अलग करने में कामयाब रहा,धारीदार शिकारी की रक्षा करने के लिए।१९७३ में, नौ बाघ अभ्यारण्यों से,अब हमारे पास ५३ हैं,साथ में उनकी संख्या कुछ और भी बढ्नेवाली है।आधिकारिक सरकारी रिकॉर्ड, बाघों की आबादी की पुष्टि करते हैं, की बाघों की आबादी दोगुनी हो गयी है, अनुमानित १,४११ से २००६ में, ३,१६७,२०२२ में।भारत ने ७५,८०० sq km की भूमि को भी अलग रखा है,बाघों और उनके शिकार की सुरक्षा करने के लिए,और यह निवास स्थान, बदले में,३०० से अधिक नदियों के महत्वपूर्ण जलग्रहण क्षेत्रों की रक्षा करने में सहायता कर रहे हैं।इससे भी अधिक बात यह है,की,जैसा की स्वर्गीय कैलाश सांखला ने रेखांकित किया था,पहले निदेशक,बाघ परियोजना के,जब महत्वाकांक्षी रीवाइल्डिंग पहल शुरू की गई थी,डॉ. करण सिंह के हाथों द्वारा (पूर्व राजकुमार रीजेंट,जम्मू और कश्मीर के) और स्व प्रधानमंत्री,इन्दिरा गांधी द्वारा,१९७३ में, असंख्य जीवन-रूप, जो बाघों के आवासीय स्थान साझा करते हैं,वे और विकसित हुए और निखरे।
जबकि,यह सब बहुत अच्छा है, यह महत्वपूर्ण है ध्यान रखना, की,भारत के सभी ७५% बाघ ,१८ में से केवल ६ राज्यों में मिलते/रहते हैं।यह राज्य हैं,मध्य प्रदेश,कर्नाटक,उत्तराखंड,महाराष्ट्र,असम और तमिल नाडु।दूसरे तीन-केरल,राजस्थान और पश्चिम बंगाल,हम कह सकते हैं,उनको मध्यवर्ती सफलता मिली है, अपने बाघों के आवासों को सुरक्षित करने के संदर्भ में,ताकि टाइगर क्लब ऑफ़ सिक्स’ में शामिल हो सकें।जहां तक बाकी नौ राज्यों का सवाल है,जैसे,आंध्र प्रदेश,अरुणाचल प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड,मिज़ोरम,तेलंगाना,ओड़ीशा और उत्तर प्रदेश, इन राज्यों को आप कह सकते हो, की इन्होंने निरंतर,खराब प्रदर्शन किया है।
बाघ को जानबूझकर चुना गया था, भूदृश्य-स्तरीय संरक्षण के प्रतीक के रूप में, चूँकि, यह दीर्घावधिक है,भिन्न आवासीय प्रकारों में ढल जाता है, और इसकी खाद्य श्रृंखला के शीर्ष पर बैठता है।पर्याप्त बड़े क्षेत्र की सुरक्षा के बिना, बाघ का संरक्षण नहीं किया जा सकता।और जब ऐसा होता है, तो असंख्य छोटी और बड़ी प्रजातियाँ संरक्षित हो जाती हैं।यह बिल्ली साँप, और सेनेमास्पिस गेको, विज्ञान के लिए अज्ञात थे,जब लेखक ने इनकी तस्वीर खींची,२०१७ में, तमिल नाडु के कलाकड़ मुंदंथुराई टाइगर रिज़र्व में।फोटो क्रेडिट: डॉ अनिश अंधेरिया
भारत के कृषि-अर्थशास्त्रियों की गलती है,क्योंकि उन्होंने हमारी खाद्य सुरक्षा के लिए,प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र के योगदान को कम आँका ।यही एक कारण बना है,कृषि भूमि के क्षरण का।
संरक्षण दीर्घकालिक अर्थशास्त्र है
पिछले ५० वर्षों में, बाघों के लिए बहुत कुछ हासिल किया गया है।भारत ने अधिकांश अन्य बाघ-पालन वाले देशों की तुलना में, कहीं बेहतर प्रदर्शन किया है।हालाकिं,जलवायु परिवर्तन और विकास की तेज़ रफ्तार,जिसमे,सड़कें,बांध,नहर,खाने(mines) शामिल हैं,आनेवाले समय में गंभीर चुनौतियाँ प्रस्तुत कर सकते हैं।जबतक नीतियाँ बनानेवाले,यह स्वीकार नहीं कर लेते, की,पारिस्थितिकी तंत्र अपनेआप में अधिसंरचना हैं,वह भी अत्यधिक अधिक आर्थिक मूल्य के साथ,वर्तमान अनुमान से अधिक जैसे,भारी मानव पैरों के निशान,जिसमे,शहरीकरण,बाघों के बचे हुए आवासों पर भारी दबाव डालेगा।
प्रबंधन प्रभावशीलता मूल्यांकन(MEE),जो एनटीसीए द्वारा, हर चार साल में किया जाता है,संरक्षण प्रयासों में,जो विभिन्न राज्यों द्वारा किए जाते हैं,उसमे स्पष्ट असमानताओं को उजागर किया है, और अक्सर एक ही राज्य के बाघ अभ्यारण्यों के बीच।हमें यह स्वीकार करना होगा, की भारत पूरे देश में एक समान संरक्षण रणनीति लागू करने में विफल रहा है।कुछ राज्यों का प्रदर्शन लगातार खराब रहा है,कई एमईई(MEE) चक्रों के बावजूद,और यह,एनटीसीए की सिफारिशों के गैर-अनुपालन पर प्रकाश डालता है।उदाहरण के तौर पर,मध्य प्रदेश,निरंतर अच्छा प्रदर्शन करता है जबकि पास वाला छत्तीसगढ़,निरंतर खराब प्रदर्शन कर रहा है।लेकिन यह ऐसी समस्याएँ नहीं हैं, जिनसे निपटा नहीं जा सकता और बाघ परियोजना ने यह बताया है, की कैसे, यदि कुदरत को, अपने तरीके को अपनाने के लिए छोड़ दिया, तो,कुदरत वस्तुतः स्वयं को ठीक करने की साजिश रचती है।
बाघ घनत्व,किसी आवास के प्रबंधन की गुणवत्ता का अच्छा प्रतिबिंब हैं,और घनत्व में लगातार गिरावट, निवास स्थान में गिरावट का संकेत देती है,और जो बदले में जैव विविधता,जल विज्ञान और कार्बन पृथक्करण को प्रभावित करता है।भारत के कृषि-अर्थशास्त्रियों की बड़ी गलती है,की,
उन्होंने प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र के योगदान को,भोजन सुरक्षा के लिए बहुत कम आँका।अन्य अधिकांश समस्याओं से भी अधिक,और इसकी वजह से,कृषि भूमि का क्षरण हुआ है,ख़राब भूमि प्रबंधन और अविवेकी उपयोग, रसायनों के,उन्होंने भूजल को जहरीला बना दिया है,और मिट्टी के जीवों को नष्ट कर दिया,और जिसके बिना,कृषि भूमि ने अपनी उर्वरता खो दी है।
उदाहरण के तौर पर,भारत की लगभग ६०% जनसंख्या, खेती करती है, या सीधे तौर पर खेती पर निर्भर है,सतही जल में गिरावट,पारिस्थितिकी तंत्र के क्षरण के कारण,इसका विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा किसानों और खेती उत्पादनों में।इस प्रकार असमानताओं ने, समाज के सबसे हाशिये पर रहने वाले वर्गों को,अपाहिज छोड़ दिया है।इसने उन्हें,वन ईंधन लकड़ी, पर निर्भरता को बढ़ा दिया है,लघु वनोपज, और बुशमीट,वह भी ऐसे अस्थिर स्तरों पर,जिससे पारिस्थितिकी तंत्र और भी ख़राब हो जाए, जिसने हमारी महान संस्कृतियों को जन्म दिया।
हर क्षेत्र, वित्तीय या सामाजिक, अंततः यह हमारे वनों के स्वास्थ्य,आर्द्रभूमियाँ, घास के मैदानों,नदियों, झीलों और तटों पर निर्भर होनेवाले हैं।
इस अवांछनीय स्थिति में, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को जोड़ना,पहले से ही अत्यधिक आबादी वाले भारत में,भारतीय उपमहाद्वीप के पुन:निर्माण और पुन:बहाली का कार्य प्रस्तुत करता है, और वह जितना होना चाहिए,उससे कहीं कठिन और महंगा भी साबित होता है।
मामले को और बदतर बनाने के लिए, कर्ज़ और गरीबी का दुष्चक्र,कई अवशेष पारिस्थितिक तंत्रों को, पतन की ओर ले जाता है, जिसमे,घास के मैदान, आर्द्रभूमि, मैंग्रोव, रेत के टीले, झीलें और नदियाँ भी शामिल हैं।पानी की गुणवत्ता और मिट्टी की उर्वरता में कमी होने के कारण, यह बड़ी मात्रा में लोगों को,अपने जन्मस्थान से बाहर पलायन करने के लिए मजबूर करता है,अंततः राष्ट्र के सामाजिक ताने-बाने पर प्रभाव डालता है,पारिवारिक बंधनों और सामुदायिक संबंधों को बाधित करता है, गरीबी को बढ़ाता है,जिससे सामाजिक तनाव उत्पन्न होता है और गंभीर कानून-व्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
स्पष्ट रूप से,यहां मुद्दा पर्यावरण बनाम विकास का नहीं है,अपितु अल्पकालिक बनाम दीर्घकालिक अर्थशास्त्र का है।
आगे का रास्ता
प्रोजेक्ट टाइगर की ५०वी वर्षगांठ पर,अब,जब मैं पीछे मुड़ के देखता हूँ,और इस पृथ्वी के सबसे सफल जलवायु परिवर्तन शमन अभियान की सफलताओं और विफलताओं को फिर से जीता हूँ,मुझे लगता है,इससे हमने बहुत कुछ सीखा है।हमारे कुछ प्रयासों से हमें सफलता मिली, और कुछ प्रयासों से नहीं मिली।कई पुरानी चुनौतियाँ जैसे,सुव्यवस्थित वनजीवन अवैध शिकार,इसमे कुछ हद तक कमी आयी है,दूसरे,जैसे मानव-वनजीवन संघर्ष,और तीव्र हो गया है,और गंभीर हो गया है।संरक्षण की चुनौतियाँ और तेज़ हो गयी हैं।ज्ञान आधार,जीवविज्ञानीयों का,सामाजिक वैज्ञानिकों का,उद्यान प्रबन्धक का,और नीति बनानेवालों का,आश्चर्य रूप से बढ़ गया है। लेकिन क्या हम, क्षणिक,अल्पकालिक लाभ को,स्थायी पारिस्थितिक,जल,भोजन, सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा के लिए छोड़ सकते हैं?
महत्वपूर्णता के क्रमांक में नहीं,यहाँ प्रस्तुत कुछ बिन्दु हैं,जिस पर हमें काम करना होगा,ताकि हम भविष्य के खतरों पर काम कर सकें:
- सुरक्षित इलाकों को और उनके पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र को अकेला छोड़ दें।इसपर कोई समझौता नहीं,क्योंकि सिर्फ यही हमें जलवायु परिवर्तन से बचाएंगे। और उसी तरह,हमें नवीन तरीके ढूँढने होंगे,ताकि नष्ट हुए आवासों को, पुनर्स्थापित और पुन:जंगली बनाया जा सके।
- जैवविविध पारिस्थितिक तंत्र को बायपास करें, रैखिक परियोजनाओं के लिए,क्योंकि उन्हें खंडित करने से, हमारे जल,समाज, आर्थिक और जलवायु सुरक्षा को नुकसान पहुँचेगा।दुर्लभ मामलों में,शमन संरचनाओं पर भरोसा किया जा सकता है,पारिस्थितिक प्राथमिकताओं को नकारे बिना,और वह भी वित्तीय विचारों के साथ।
- भारत के ग्रामीण इलाकों में व्यापक रोज़गार दिया जाए,और हमारे लोगों को काम पर लगाया जाए,ताकि हमारे ३००० से अधिक, बड़े बांध के जलग्रहण क्षेत्रों को, फिर से बहाल किया जा सके,श्रम प्रधान मिट्टी के और नमी संरक्षण कार्य के माध्यम से।इससे पर्यावरणीय कार्बन नीचे आएगा और जैवविविधता को बढ़ाएगा, जलाशयों में गाद कम करेगा और बाढ़ और सूखे को नियंत्रित करेगा। यहाँ तक की निंदा करने वाला कृषि-अर्थशास्त्री भी,इस बात को मानेगा की,खाद्य उत्पादन में वृद्धि होगी और किसान आत्महत्याओं की दुखद संख्या में कमी आएगी।
- भारत में,टाइगर का जीवन,उस राज्य के हाथों में है, जहां वह रहता है।कई टाइगर राज्यों ने पैंथेरा टाइग्रिस को निराश किया है।ऊपर दिये गए सूचीबद्ध शीर्षक बिंदु के अलावा,जिन जिन राज्यों ने,टाइगर जीवन के संबन्धित निराश किया है, उन्हें और मेहनत करनी होगी,यदि हम विपरीत परिस्थिति को बदलना चाहते हैं तो।शुरुआत हमको कुछ इस तरह करनी होगी की,हमारे पैदल सैनिकों, को अन्य क्षेत्रों के जैसे, समान वेतन देना होगा,जिसको विशुद्ध रूप से आर्थिक आधार पर प्राथमिकता दी गयी है।उनकी कौशल क्षमताओं को और बढ़ाना होगा और उन्हें साथ ही साथ,सम्मान भी देना होगा,और जो पद खाली हैं,उन्हें भरना होगा।अंततःअर्थशास्त्रियों को यह समझना होगा की हर क्षेत्र,आर्थिक या सामाजिक,आखिरकार हमारे प्राकृतिक परिस्थितिकी तंत्रों के स्वास्थ्य पर ही निर्भर हैं।जैसे ही हमारा राष्ट्रीय समाचार तंत्र, गर्मियों में बढ़ती हुई रिकॉर्ड गरम हवाओं की थपेड़ों पर केन्द्रित होता है,यह हमारे वन निरीक्षक,गार्ड्स और फील्ड अधिकारी,जंगल की आग से लड़ रहे होंगे और जो निःसंदेह,बढ़ती ही जाएगी।जनता को यह नहीं दिखनेवाली टास्क फोर्स के कारण ही, भारत जलवायु विनाश से बचकर,जीवित रह पाएगा,जो अपनेआप में एक डेमोकल्स की तलवार है,जो हमपर लटक रही है।अगर हम इस अदृश्य टीम को हत्तोसहित कर दें,यह हमारी सीमाएँ नहीं होंगी,जहां से अस्तित्व संबंधी खतरे हम पर मंडराएँगे,बल्कि अस्तित्व संबंधी खतरे, अंदरूनी होंगे।
- नीति अनुसार,जैव विविधतापूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र के करीब रहनेवालों को सक्षम बनाएँ ताकि वे, जैव विविधता पुनर्जननके प्राथमिक लाभार्थी बने।पर्यटन क्षेत्र ने ७९.८६ मिलियन, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से रोज़गार प्रदान करे,वित्तीय वर्ष २०१९-२० में,सरकार के तीसरे पर्यटन सैटेलाइट अकाउंट के अनुसार,जो,भारत की विदेशी मुद्रा आय का,एक प्रमुख योगदानकर्ता है।
रणनीति एकदम सीधी है,बीज द्रव्य को सुरक्षित क्षेत्र नेटवर्क में पुनीत रखते हुए,यह आवश्यक है की स्थानीय समुदाय, वनप्रजातियों को यमदूत(ग्रीम रीपर्स) समझना बंद करें,और अन्नदाता के रूप में उनकी पहचान करें। यह सब आसानी से संभव किया जा सकता है और आर्थिक रूप से भी संभव है।मेरे मन में कोई शंका नहीं है, की अगर किसी भी कारण, बाघ, इन्सानों के आगे हार गए, तो वन में चलनेवाला आखिरी बाघ, भारत में होगा।प्रोजेक्ट टाइगर का संघर्ष उसकी सफलता,इंसान की क्षमता का उदाहरण है,ताकि वह अपने गलतियों से सीखे और उसके आगे बढ़े,और सारे अवरोधों को पार करके,बड़े मांसाहारियों को २१ वी सदी में,विलुप्त होने से बचाए।
भारत में अभी भी संस्कृतियाँ विद्यमान हैं,प्रकृति की उपासना की वह जादुई लौ,चिंगारी,जो इस पृथ्वी पर,कई देशों से नदारद हो चुकी है। हम शेष, विश्व में वह जादू फिर से जगा सकते हैं,लेकिन उसके पहले, हुमें प्रकृति के साथ काम करना होगा, वह जादू को बरकरार रखने का, अपने देश में,और उससे भी ज़्यादा,वह जादू बरकरार रहे हमारे दिलों में।
टाइगर इस जादू को संभव करने में हमारी सहायता करेगा।
विशेषज्ञों का क्या कहना है:
डॉ। रघु चुंदावत,संरक्षण जीवविज्ञानी,और जोआना वैन ग्रूइसेन,संरक्षणकर्ता और प्रभुत्व(मालिक) भागीदार,द सराई,तोरिया में
बाघों के लिए,५० वर्ष एक बहुत लंबा समय है और बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है,लेकिन उसके साथ साथ बहुत कुछ खोया भी जा सकता है।हम आशा करते हैं, की अगले एक दशक में,हम हमारी संरक्षण सफलताओं का लाभ उठाकर,आगे बढ़ सकते हैं।सीमा संकुचन एक बहुत ही गंभीर खतरा है,प्रजातियों की विलुप्ति के लिए, और इसीलिए,हमारी पहली आशा यह है, की ऐसा ना होने पाए,और इसको उल्टा करें,ताकि बाघ अपने पूर्व २५-३०% सीमा को वापिस पा लें।यह भारत को १००००-१२००० बाघों को समर्थन करने में पूरे देश में सहायता करेगा।बाघ वन, जो पारिस्थितिक तंत्र सेवाएँ मुहैया कराते हैं, इसमें पर्याप्त वृद्धि भी होगी और पारिस्थितिक तौर पर देश को और स्वस्थ बनाएगी।लेकिन,इसको हासिल करने के लिए,हमें अपना दिमाग, हमारी सोच को, पर्यावरणीय सुगमता और नए संरक्षण मॉडल के लिए खोलना होगा। हमें वह कदम लेने होंगे जो संरक्षण का लोकतंत्रीकरण करें, और कानून में संशोधन करें, ताकि जिनको रुचि है, वह इसमे शामिल हो सकें।हम चाहते हैं की, समावेशी तरीके से, संरक्षण सुरक्षित क्षेत्रों से आगे बढ़े।हम एक नये दृष्टिकोण की परिकल्पना करते हैं,जहां पर स्थानीय समुदाय सक्रिय भागीदार हों, ना की वे, प्रकृति संरक्षण के लिए ख़तरे के रूप में देखे जाएँ,जहां पर प्राकृतिक संरक्षण, एक जनता का अभियान बन सके,और यह इस तरह से हासिल हो, की यह वैश्विक चिरस्थायी विकास लक्ष्य को हासिल करने में सहायता करे।हम यह भी आशा करते हैं, की भविष्य में होनेवाले विकास,प्रकृति और जलवायु बदलाव मामलों के प्रति संवेदनशील हों।
उमा रामकृष्णन,प्रोफेसर और वरिष्ठ फेलो,वेलकम ट्रस्ट डीबीटी इंडिया गठबंधन,राष्ट्रीय जैविक विज्ञान केंद्र, टीआईएफआर
विश्व के ७०% बाघ,भारत में रहते हैं। भारतीय टायगर्स,अनुपातहीन मात्रा में,प्रजातियों की आनुवंशिक भिन्नता की मेज़बानी करते हैं। बावजूद इसके, बाघ जनसंख्या भारत में अलग-थलग है,और इसके कारण आनुवंशिक बहाव,या संयोगवश कुछ आनुवंशिक प्रकारों में वृद्धि या कमी होती है;और आंतरिक प्रजनन,रिश्तेदारों के बीच मैथुन और इसके नकारात्मक प्रभाव।एकमात्र प्रक्रिया जो इन प्रभावों को दूर कर सकती है,वह है बहाव और आंतरिक प्रजनन,जो पित्रैक(जीन) बहाव या आबादी के बीच व्यक्तियों का आवागमन।और इसके लिए कनेक्टिविटी की आवश्यकता है!
प्रोजेक्ट टाइगर के लिए, अगले 50 वर्षों के लिए, मेरा दृष्टिकोण?
मध्य भारत में कनेक्टिविटी बनाए रखें(मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र) मध्य पश्चिमी घाट और तेराई; दीर्घकालिक प्रयासों को आरंभ करें और सुविधाजनक-सरल बनाएं, ताकि कार्यात्मक कनेक्टिविटी की अनुमति दी जा सके,पहले से ही पृथक आबादी के लिए,जैसे सिमिलीपाल और रणथंभौर टाइगर रिज़र्व्स और संभावित जनसंख्या, दक्षिणी पश्चिमी घाट में;पूर्वोत्तर भारत में आबादी के बीच कनेक्टिविटी को समझा जा सके।
तो इसके लिए क्या करना होगा?कनेक्टिविटी सक्षम बनाने के लिए, राज्यों को एक साथ काम करना होगा। दूसरी सरकारी और गैर सरकारी हितधारकों की भागीदारी और सबसे महत्वपूर्ण,देश की जनता की।यह एक चुनौतीपूर्ण अंतर-क्षेत्रीय होगा,सहयोगात्मक शासन अभ्यास,जिसको कई आवाजों को एक साथ लाना होगा,स्थानों को स्पष्ट करने के लिए(और उनका शासन) जिससे बाघों के आवागमन में सुविधा होगी, और फिर भी इसका परिणाम हानिकारक नहीं होगा,लोगों पर नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ेगा।
प्रेरणा सिंह बिंद्रा,वनजीवन संरक्षणकर्ता,लेखक और पीएचडी विद्वान,केंब्रिज
पिछले ५० वर्षों पर चंद शब्द-मुझे लगता है, की भारत के पास गर्व करने के लिए बहुत कुछ है:वह यह की, हमारी जनसंख्या के साथ और महत्वाकांक्षी आर्थिक विकास दर,हम आकर्षक बड़ी बिल्ली का संरक्षण करने में सफल हुए हैं।हम दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाले देश हैं।यह हमारे लिए बहुत गर्व की बात है,उसके साथ साथ एक ज़िम्मेदारी की हमारी सुरक्षा में अधिकांश बाघ हैं। हम इस सफलता का श्रेय राजनीतिक इच्छाशक्ति को देते हैं,कानूनी और नीतिगत ढांचा, गुमनाम अग्रिम पंक्ति के वन कर्मचारियों के समर्पण और स्थानीय समुदाय, जो संरक्षित क्षेत्रों के निकट रहने का खर्च, वहन करते हैं और शिकारियों के साथ, पड़ोसी के रूप में रहते हैं।आज जो हम देख रहे हैं,वह पिछले ५० वर्षों में किए गए काम,लगन और त्याग के परिणाम हैं,यह एक रात में संभव नहीं हुआ है।
आगे बढ़ते हुए,सबसे बड़ा खतरा और सबसे बड़ी चुनौती,बाघों के निवास स्थानों की सुरक्षा और आगे के नुकसान और खंडन की रोकथाम की है।यदि बाघों को खंडित रिज़र्व्स में अलग-थलग कर दिया, तो वे जीवित नहीं रह पाएंगे। समान रूप से, हम कानूनी ढांचे को कमज़ोर नहीं कर सकते-आज जो हम देख रहे हैं- यही संरक्षण की नींव है। यह सुनिश्चित करने के लिए,की जंगली बाघ आने वाली पीढ़ियों तक फलते-फूलते रहें,हमें कुछ चीज़ें करनी पड़ेंगी:
- संरक्षित क्षेत्र और प्रमुख आवास पुनीत होने चाहिए और गलियारों को श्रेणीबद्ध सुरक्षा और भूमि उपयोग विनियमन द्वारा सुरक्षित किया जाना चाहिए।
- मौजूदा वनजीवन,जंगल,और पर्यावरण के क़ानूनों का बेहतर कार्यान्वयन, वह भी उनको बिना कमज़ोर किए।
- सशक्तिकरण,अभिप्रेरित करना अग्रणी अधिकारियों को, जिन्हें वनजीवन व्यापार के संचालकों से रोज़ निपटना होगा,क्योंकि वे ही अवैध शिकार,अतिक्रमण और अपर्याप्त संसाधनों के साथ संघर्ष जैसे मुद्दों से निपटते हैं।
- संरक्षण के लिए एक सहानुभूतिपूर्ण, समावेशी दृष्टिकोण। स्थानीय लोग,कम प्रभाव,जिम्मेदार पर्यटन और संबद्ध गैर-निष्कर्षण गतिविधियाँ के भागीदार और लाभकर्ता बनें। बाघ संरक्षण में सामाजिक न्याय को अंतर्निहित करने की आवश्यकता है।
कुमार संभव श्रीवास्तव,भूमि संघर्ष निघरानी के संस्थापक भागीदार और परियोजना निदेशक
आधी सदी बहुत लम्बा समय प्रतीत होता है,यह देखते हुए की पर्यावरण का कितनी तेज़ी से शोषण और विनाश किया जा रहा है।वनों की उच्च तीव्रता, बड़े पैमाने पर, औद्योगिक शोषण को अक्सर कानूनी मंजूरी दे दी जाती है, जबकि स्थानीय समुदाय ,जिनकी जीविका के लिए वनों पर निर्भरता बहुत कम होती है,उन्हें अपराधी घोषित कर दिया जाता है।इन कारकों के बावजूद प्रोजेक्ट टाइगर अब तक सफल रहा है।यदि हमारी इस सफलता की कहानी को जीवित रखना है,तो संरक्षण में समुदायों को, जंगलों पर उनके कानूनी अधिकारों को मान्यता देते हुए और वनों की बेतरतीब औद्योगिक कटाई की जाँच करके,उनको हितधारक बनाना चाहिए। आज से ५० साल बाद, जो अकल्पनीय उपलब्धि होगी,वह होगी अगर भारत बाघों की मौजूदा आबादी को कायम रख सकता है, और इससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण बात, की क्या भारत मौजूदा उनके और वन प्राणियों के आवासों को भी कायम रखने में कामयाब होता है!
बिट्टू सहगल,संपादक, सैंक्चुअरी नेचर फ़ाउंडेशन
बाघ को बचाने में, हमारी सफलता का जश्न मनाने का समय अभी नहीं आया है। हमें अभी और भी बहुत कुछ करना है,ताकि हम हमारी सफलता को स्वीकार करें:
- हमें यह सुनिश्चित करना होगा, की जो समुदाय वर्तमान में सुरक्षित क्षेत्रों के आस पास रहते हैं, वे वनजीवन और प्रकृति संरक्षण के प्राथमिक लाभकर्ता बन जाएँ।
- हमें स्वतंत्र शोध में पैसा लगाने की ज़रूरत है, ताकि विलक्षण मूल्य पारिस्थितिकी सेवाओं को स्थापित कर सकें, जो बाघों के जंगल हमें देते हैं,जो ज़्यादातर खराब जीडीपी कैलकुलेटर में प्रतिबिंबित नहीं होते हैं,जिनका उपयोग नीति निर्माताओं और भारतीय अर्थशास्त्रियों द्वारा किया जाता है।
- हमें दुनिया के देशों के बीच खड़े होने की ज़रूरत है, यह प्रदर्शित करने के लिए नहीं की हमारे पास कितने टाइगर रिज़र्व्स हैं,अपितु हमने किस तरह बाघ आवास कनेक्टिविटी को बढ़ाया है, और किस तरह सुरक्षित रिज़र्व्स वास्तव में अधिक कार्बन का पृथक्करण और भंडारण कर रहे हैं, लंबी अवधि के लिए,और वह भी सभी वाणिज्यिक बागानों की तुलना में, जिस पर भारत करोड़ों रुपए खर्च करता है।
- हमें अपने युवाओं को यह बताने की ज़रूरत है की विविध,पारिस्थितिकी तंत्र उत्थान,औद्योगिक निवेश के बदले, ज़्यादा नौकरी देने में सक्षम हैं, और इसका समानान्तर लाभ, जल एवं खाद्य सुरक्षा को बढ़ाएगा,बाढ़ और सूखे में कमी आएगी और नाटकीय रूप से पर्यटन बढ़ेगा,जिसके कारण, कुछ उद्यानों में अतिरिक्त भीड़ भाड़ में कमी आएगी,और साथ ही साथ देश के हर राज्य में, नौकरी और आजीविका के अवसर मिलेंगे।
यह सब औद्योगिक परियोजनाओं पर खर्च किए जा रहे कर(टैक्स) के पैसे से बहुत कम है,जो आज प्राकृतिक संपदा को प्रदूषित और नष्ट कर रहे हैं, जिसने भारत की संस्कृतियों,दर्शनशास्त्र,धर्म,संगीत,नृत्य और आर्थिक सुरक्षा को जन्म दिया।
जो ऊपर लिखा है उसे बिना आत्मसात किए, पैंथेरा टाइग्रिस के भविष्य पर एक छाया हमेशा मंडराती रहेगी,वह सर्वश्रेष्ठ ब्रांड एंबेसडर जिसकी चाहत रखने की कोई देश कल्पना कर सकता है।
मौलिक तौर पर यह लेख जून २०२३ में, सैंक्चुअरी एशिया मैगज़ीन में प्रकाशित हुआ था।
लेखक के बारे में: डॉ. अनिश अंधेरिया कार्ल ज़ीस संरक्षण पुरस्कार विजेता हैं,राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के सदस्य, और महाराष्ट्र और जम्मू और कश्मीर दोनों राज्य वन जीव बोर्ड के सदस्य भी हैं। वह एक बड़े मांसाहारी जीवविज्ञानी हैं और दो, भारतीय वनजीवन किताबों, के सह-लेखक भी हैं।अनिश,महाराष्ट्र तटीय क्षेत्र प्रबंधन प्राधिकरण के सदस्य हैं, और बॉम्बे नेचरल हिस्ट्री सोसाइटी की गवर्निंग काउंसिल के भी सदस्य हैं।
अस्वीकारण: लेखक, वाइल्डलाइफ कंज़र्वेशन ट्रस्ट से जुड़े हुये हैं। इस लेख में प्रस्तुत किए गए मत और विचार उनके अपने हैं, और ऐसा अनिवार्य नहीं कि उनके मत और विचार, वाइल्डलाइफ कंज़र्वेशन ट्रस्ट के मत और विचारों को दर्शाते हों।
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